Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 349
________________ ३२० ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, २५८. लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सियाणमसंजदभंगो ॥ २५८ ॥ किण्हलेस्साए ताव उच्चदे - पंचणाणावरणीय छदंसणावरणीय-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-मणुसगइ-देवगइ-पंचिंदियजादि-ओरालियवेउब्विय तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालिय-वेउब्वियसरीरंगोवंग-वजरिसहसंघडणवण्णचउक्क-मणुसगइ-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअचउक्क-पसत्थविहायगइ. तसचउक्कथिराथिर-सुहासुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणुच्चागोद-पंचतराइयाणि किण्हलेस्सियचउगुणट्ठाणजीवेहि बज्झमाणाणि । तत्थुदयादो बंधो पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति परिक्खाएं' असंजदभंगो। पंचणाणावरणीय-च उदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीर-वणचउक्क-अगुरुवलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं बंधो सोदओ, धुवोदयत्तादो । देवगइदुग-वेउब्वियदुगाणं परोदओ, बंधोदयाणं समाणकाल उत्तिविरोहादो । णिदा-पयला-सादासाद-बारसकसाय-पुस्सिवेद लेश्यामार्गणानुसार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंकी प्ररूपणा असंयतोंके समान है ॥ २५८ ॥ पहले कृष्णलेश्याके आश्रित प्ररूपणा करते हैं- पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक और वैक्रियिक शरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्णादिक चार, मनुष्यगति और देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदिक चार, प्रशस्तविहायोगति, त्रसादिक चार, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, ये प्रकृतियां कृष्णलेश्यावाले चार गुणस्थानवी जीवों द्वारा बध्यमान हैं। उनमें 'उदयसे बन्ध पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है या पश्चात् ' इस प्रकारकी परीक्षा यहां असंयत जीवोंके समान है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका बन्ध स्वोदय होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं । देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनके बन्ध और उदयके समान कालमें रहनेका विरोध है। निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, १ अप्रतौ परिक्खाणं ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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