Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, २५८. ]
लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[ ३२९
वे उव्वियमिस्स - ओरालियमिस्स - कम्मइयपच्चया णत्थि, अपज्जत्तकाले एदार्सि बंधाभावादो । एइंदिय-आदाव थावराणं वेउब्वियकाय जोगपच्चओ अवणेयव्वो । बीइंदिय-तीइंदिय- चउरिंदियसुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं वेउव्विय- वे उव्वियमिस्सपच्चया अवणेदव्वा, देव- रइएस एदासिं बंधाभावाद | मिच्छत्तस्स चउगइसंजुत्तो । णवुंसयवेद - हुंडसठाणाणं तिगइसंजुत्तो, देवगदीए अभावादो । असंपत्तसेवट्टसंघडण - अपज्जत्ताणं दुगइसंजुत्तो, णिरय देवगईणमभावादो । णिरयाउणिरय दुगाणं णिरयगइ संजुत्तो । अवसेसाणं पयडीणं तिरिक्खगइसंजुत्तो बंधो । णिस्याउणिरय दुग-बीइंदिय-तीइंदिय - चउरिंदियजादि - सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं तिरिक्ख- मणुसा सामी । मिच्छत्त-णवुंसयवेद- हुंडसंठाण असंपत्तसेवट्टसंघडणाणं चउगइमिच्छाइट्ठी सामी । एइंदिय-आदावथावराणं तिगइमिच्छाइट्ठी सामी । बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्हि अद्धाणविरोहादो | बंधवोच्छेदो सुगम । मिच्छत्तस्स बंधो चउव्विहो । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो, अदुवबंधित्तादो ।
मणुसाउअस्स मिच्छाइट्ठि- सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सोदय - परोदओ | असंजदसम्मादिट्ठी परोदओ । सव्वत्थ णिरंतरो, एगसमरण बंधुवरमाभावादो । पच्चया ओघसिद्धा ।
नरकगति और नारकानुपूर्वीके वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्यय नहीं हैं, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें इनके बन्धका अभाव है । एकेन्द्रिय, आताप और स्थावरके वैक्रियिककाययोग प्रत्यय कम करना चाहिये । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण शरीर के वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र प्रत्ययोंको कम करना चाहिये, क्योंकि, देव और नारकियों में इनके बन्धका अभाव है ।
मिथ्यात्वका बन्ध चारों गतियोंसे संयुक्त होता है। नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानका बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके साथ देवगतिके बन्धका अभाव है । असंप्राप्तसृपाटिका संहनन और अपर्याप्तका बन्ध दो गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके साथ नरक और देव गतिके बन्धका अभाव है । नारकायु और नरकद्विकका बन् नरकगतिले संयुक्त होता है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध तिर्यग्गतिसे संयुक्त होता है । नारका, नरकद्विक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण प्रकृतियोंके तिर्यच और मनुष्य स्वामी हैं । मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननके स्वामी चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि जीव हैं। एकेन्द्रिय, आताप और स्थावर प्रकृतियोंके तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं । बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थान में अध्वानका विरोध है । बन्धव्युच्छेद सुगम है । मिथ्यात्वका बम्ध चारों प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियों का सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। मनुष्यायुका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें स्वोदयपरोदय होता है । असंयतसम्यग्दृष्टियों में उसका परोदय बन्ध होता है । सर्वत्र निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय औघसे सिद्ध हैं ।
छ. नं. ४२.
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