Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
३३२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २५८. ते-वाउकाइएसु णीललेस्सिएसु तिरिक्खगइदुग-णीचागोदाणं णिरंतरबंधुवलंभादो । तदियपुढवीए णीललेस्साए वि संभवादो तित्थयरबंधस्स मणुस्सा इव णेरइया वि सामिणो होति ति किण्ण परूविज्जदे १ तत्थ हेट्ठिमइंदर णीललेस्सासहिए' तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादाभावादो। कुदो १ तत्थ तिस्से पुढवीए उक्कस्साउदसणादो । ण च उक्कस्साउएसु तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादो अस्थि, तहोवएसाभावादो। तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणं णेरइएसुववजमाणाणं सम्माइट्ठीणं व बाउलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावादो वा ण णील-किण्हलेस्साए वित्थयरसंतम्मिया अस्थि ।
एवं काउलेस्साए वि वत्तव्वं । णवरि तित्थयरस्स मणुसा इव णेरइया वि सामिणो । मणुस-देवगइसंजुत्तो बंधो। ओघपच्चएसु एक्को वि पच्चओ णावणेयव्वो, वेउव्वियदुगोरालियमिस्स-कम्मझ्यपच्चयाणं भावादो। ओरालियदुग-मणुसगइदुग-वजरिसहसंघडणाणं असंजदसम्मादिडिम्हि वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया णावणेयव्वा । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुबीए
समाधान-नहीं, क्योंकि तेज व वायु कायिक नीललेश्यावाले जीवोंमे तिर्यग्गतिद्विक और नीचगोत्रका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
__ शंका-तृतीय पृथिवीमें नीललेश्याकी भी सम्भावना होनेसे तीर्थकर प्रकृतिके बन्धके मनुष्योंके समान नारकी भी स्वामी होते हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, वहां नीललेश्या युक्त अधस्तन इन्द्रकमें तीर्थकर प्रकृतिके सत्ववाले मिथ्यादृष्टियोंकी उत्पत्तिका अभाव है। इसका कारण यह है कि वहां उस पृथिवीकी उत्कृष्ट आयु देखी जाती है। और उत्कृष्ट आयुवाले जीवोंमें तीर्थकरसंतकर्मिक मिथ्यादृष्टियोंका उत्पाद है नहीं, क्योंकि, वैसा उपदेश नहीं है । अथवा नारकियों में उत्पन्न होनेवाले तीर्थकरसन्तकर्मिक मिथ्यादृष्टि जीवोंके सम्यग्दृष्टियोंके समान कापोत लेश्याको छोड़कर अन्य लेश्याओंका अभाव होनसे नील और कृष्ण लेश्यामें तीर्थकरकी सत्तावाले जीव नहीं होते।
इसी प्रकार कापोतलेश्यामें भी कहना चाहिये । विशेषता इतनी है कि तीर्थकर प्रकृतिके मनुष्योंके समान नारकी भी स्वामी हैं। मनुष्य और देव गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । ओघप्रत्ययों में से एक भी प्रत्यय कम नहीं करना चाहिये, क्योंकि, वैक्रियिकद्विक, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका यहां सद्भाव है। औदारिकद्विक, मनुष्यगतिद्विक और वज़र्षभसंहननके असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम नहीं करना चाहिये। तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय
१ प्रतिषु ' हेहिमइंदिए णीललेस्सासहए इति पति।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org