Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 355
________________ ३२६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २५८. सम्मादिविणो, तिगइसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो सामी, देवगईए अभावादो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं चउगइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो णिरयगइसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो च सामी । देवगइ-वेउव्वियदुगाणं दुगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो च सामी, णिरय-देवगईणमभावादो । वंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णस्थि, ' अबंधा णत्थि' ति वयणादो। धुवबंधीणं मिच्छादिट्ठिम्हि बंधो चउब्धिहो । अण्णत्थ तिविहो, धुवाभावादो । अवबंधीणं सव्वत्थ सादिअद्भुवो, अणादि-धुवाणमभावादो । संपहि दुट्ठाणपयडीणं परूवणा कीरदे- अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, सासणसम्मादिट्टिम्हि तदुभयवोच्छेदुवलंभादो । एवं तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीए वि वत्तव्वं । असंजदसम्मादिट्ठिम्हि वि तदुदओ अत्थि त्ति चे ण, किण्णलेस्साए णिरुद्धाए मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि, तथा तीन गतियोंके सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, यहां देवगतिमें इनके बन्धका अभाव है। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननके चारों गतियोंके पिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि और नरकगतिक सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं । देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके दो गतियोंके मिथ्याधि सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरक और देव गतिमें इनके बन्धका अभाव है। वन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, 'अवन्धक नहीं है ' ऐसा सूत्रमें कहा गया है । ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । अन्य गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है । अध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, उनके अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है। अब द्विस्थान प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करते हैं - अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है। इसी प्रकार तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीके भी कहना चाहिये। शंका--असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें भी तो तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीका उदय है, फिर उसका उदयव्युच्छेद सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कैसे सम्भव है। समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, कृष्णलेझ्याका अनुषंग होनेपर उसका वहां उदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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