Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

View full book text
Previous | Next

Page 352
________________ ३, २५८.] लेस्सामग्गणार बंधसामित्त [ ३२३ तहा सव्वे देवा मुदयक्खणेण' चेव अणियमेण असुहतिलेस्सासु णिवदंति ति गहिदे जुज्जदे । अण्णे पुण आइरिया किण्णलेस्साए मजुसगइदुगस्स णिरंतरं बंधं णेच्छंति, मणुसगदिबंधगद्धाए काउलेस्साबंधगद्धाबहुत्तब्भुवगमादो । तं पि कुदो ? मुददेवाणं सव्वेसि पि काउलेस्साए चेव परिणामब्भुवगमादो। उवरि णिरंतरो । ओरालियसरीर-अंगोवंगाणं मिच्छाइट्टिसासणसम्मादिट्ठीसु सांतर-णिरंतरो । कुदो ? णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । पंचिंदियजादि-परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठीसु सांतर-णिरंतरो, णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो। पच्चयाणमोघमंगो। णवरि असंजदसम्माइट्ठिपच्चएसु वेउब्वियमिस्सपच्चओ अवणेदव्वो। ओरालियदुग-मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं सम्मामिच्छाइडिम्हि ओरालियकायजोगित्थि ........... है, उसी प्रकार सब देव मरणक्षणमें ही नियम रहित अशुभ तीन लेश्याओंमें गिरते हैं, ऐसा ग्रहण करनेपर उपर्युक्त कथन संगत होता है। अन्य आचार्य कृष्णलेश्यामें मनुष्यगतिद्विकका निरन्तर बन्ध नहीं मानते हैं, क्योंकि, मनुष्यगति बन्धककालसे कापोतलेश्याका बन्धककाल बहुत स्वीकार किया गया है। शंका-वह भी कैसे? समाधान ---क्योंकि, सब ही मृत देवोंका कापोतलेश्याम ही परिणमन खीकार किया गया है। ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है। औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । पंचेन्द्रिय जाति, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टियोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है. क वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। प्रत्ययोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि असंयतसम्यग्दृष्टिके प्रत्ययों में वैफियिकमिश्र प्रत्ययको कम करना चाहिये। औदारिकद्विक, मनुव्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके सभ्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें औदारिक क्योंकि, १ अप्रतौ · देवा मुदयक्खणोण ', आ-काप्रत्योः : देवाणमुदयक्खणोण ' इति पाठः। २ प्रतिषु । सम्मामिच्छाइट्ठीहि ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458