Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 342
________________ ३, २४६.] संजममग्गणाए बंधसामित्तं [३१३ ____एत्थोदइल्लाणं बंधोदयवोच्छेदाभावादो उदयादो बंधो किं पुव्वं पच्छा वा वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्कअगुरुअलहुअ-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । देवगइवेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं परोदओ बंधो, बंधोदयाणं परोप्परविरोहादो । णिद्दा-पयला-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछासमचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं बंधो सोदय-परोदओ उहयहा वि वंधुवलंभादो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणाणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ, उहयहा वि बंधुवलंभादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु परोदओ, सोदएण सगबंधस्स तत्थ विरोहदंसणादो । पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्ताणं मिच्छादिट्ठीसु सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव, विगलिंदिय-थावर-सुहुमापज्जत्तएसु सासणादीणमभावादो । उवघादपरघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्टि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय यहां उदय युक्त प्रकृतियोंके बन्ध और उदयके व्युच्छेदका अभाव होनेसे उदयकी अपेक्षा बन्ध क्या पूर्वमें और या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इनके बन्ध और उदयके परस्पर विरोध है । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनका बन्ध पाया जाता है । मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग और वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वहां दोनों प्रकारसे भी इनका बन्ध पाया जाता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में परोद्य बन्ध होता है, क्योंकि, अपने उदयके साथ अपने बन्धका वहां विरोध देखा जाता है। पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर और पर्याप्तका बन्ध मिथ्यादृष्टियोंमें स्वोदय-परोदय होता है। ऊपर इनका स्वोदय ही बन्धहोता है, क्योंकि, विकलेन्द्रिय, स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्तकोंमें सासादनादिक गुणस्थानोंका अभाव है । उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय ..बं.४०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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