Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३०२) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २३०. उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । भय-दुगुंछाणं सव्वत्थ णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्चएहिंतो विसेसाभावादो। देवगइसंजुत्तो अगइसंजुत्तो वि, अपुव्वकरणद्धाए चरिमसत्तमभागे गईए बंधाभावादो । मणुसा सामी । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अपुव्वकरणो त्ति बंधद्धाणं । अपुवकरणचरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि । भय-दुगुंछाणं तिविहो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं सादि-अद्धवो, तबिवरीयबंधादो।
देवाउअस्स पुवावरकालेसु बंधोदयवोच्छेदपरिक्खा णत्थि, उदयाभावादो । परोदओ बंधो, साभावियादो। णिरंतरो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा । देवगइसंजुत्तो। मणुसा चेव सामी। पमत-अप्पमत्तसंजदा बंधद्धाणं । अप्पमत्तद्धाए संखेज्जदिमं भागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो ।
संपहि देवगइसहगयाणं सत्तावीसपयडीणं भण्णमाणे पुवावरकालेसु बंधोदयवोच्छेदपरिक्खा जाणिय कायव्वा । देवगइ-वेउवियदुगाणं बंधो परोदएण, साभावियादो । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुस्सराण सोदय-परोदओ, संजदेसु पडिवक्खपयडीणं पि उदय
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संयत गुणस्थानमें सान्तर होता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। भय और जुगुप्साका सर्वत्र निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं । प्रत्यय सुगम है, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई विशेषता नहीं है। देवगतिसंयुक्त और अगतिसंयुक्त भी बन्ध होता है, क्योंकि, अपूर्वकरणकालके अन्तिम सप्तम भागमें गतिके बन्धका अभाव हो जाता है । मनुष्य स्वामी हैं । प्रमत्तसंयतसे लेकर अपूर्वकरण तक बन्धाध्वान है । अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है । भय और जुगुप्साका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंके, वे उनसे विपरीत (अध्रुव) वन्धवाली हैं ।
देवायुके पूर्वापर कालभावी बन्ध व उदयके व्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है, क्योंकि, यहां उसका उदयाभाव है । परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंक, अन्तर्मुहर्तके विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं। देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है । मनुष्य ही स्वामी हैं। प्रमत्त और अप्रमत्त संयत बन्धा हैं। अप्रमत्तकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है।
अव देवगतिके साथ रहनेवाली [ परभविक नामकर्मकी ] सत्ताईस प्रकृतियों की प्ररूपणा करते समय पूर्वापर कालोंमें बन्ध व उदयके व्युच्छेदकी परीक्षा जानकर करना चाहिये । देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका बन्ध परोदयसे होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, संयतोंमें इनकी
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