Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३०६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, २३४. सुगमं । पमत्तसंजदा बंधा । एदे बंधा,अवसेसा अबंधा ॥ २३४ ॥
असादावेदणीय-अरदि-सोगाणमेत्थ बंधवोच्छेदो चेव, उदयवोच्छेदो णत्थि; उवरि तदुदयवोच्छेदुवलंभादो । अथिर-असुभाणं पि एवं चेव वत्तव्वं, पमत्त सजोगीसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो। अजसकित्तीए पुबमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि, पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेददंसणादो । अथिर-असुहाणं सोदओ, अजसकित्तीए परोदओ, सेसाणं बंधो सोदय-परोदओ। सांतरो बंधो, एदासिमेगसमरण वि बंधुवरमदंसणादो । इत्थि-णqसयवेदाहारदुगविरहिदोघपच्चया एत्थ वत्तव्वा । देवगइ [-संजुत्तो] बंधे।। मणुसा सामी। बंधद्धाणं णस्थि, एगगुणट्ठाणम्हि तदसंभवादो । पमत्तसंजदचरिमसमए बंधो वोच्छिज्जदि । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो।
देवाउअस्स को बंधो को अबंधो ?।। २३५॥
यह सूत्र सुगम है। प्रमत्तसंयत बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २३४ ॥
असातावेदनीय, अरति और शोकका यहां वन्धव्युच्छेद ही है उदयव्युच्छेद नहीं है; क्योंकि, ऊपर उनका उदयव्युच्छेद पाया जाता है। अस्थिर और अशुभके भी इसी प्रकार कहना चाहिये, क्योंकि, प्रमत्त और सयोगकेवली गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । अयशकीर्तिका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, प्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमशः उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । अस्थिर और अशुभका स्वोदय, अयशकीर्तिका परोदय, तथा शेष प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदय परोदय होता है । सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इन प्रकृतियोंका एक समयसे भी बन्धविश्राम देखा जाता है । स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और आहारकद्विकसे रहित यहां ओघप्रत्यय कहना चाहिये। देवमतिसंयुक्त बन्ध होता है । मनुष्य स्वामी हैं । बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें उसकी सम्भावना नहीं है । प्रमत्तसंयत गुणस्थानके अन्तिम समयमें बन्ध ब्युच्छिन्न होता है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं।
देवायुका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २३५ ॥
१ प्रतिषु · गुणट्ठाणाणम्हि ' इति पाठः ।
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