Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ३०९.] णाणमग्गणाए बंधसामित्त
। २८५ विभंगणाणीणं पि एवं चेव वत्तव्यं, विसेसाभावादो । णवरि उवघाद-परघाद-उस्सासपत्तेयसरीराणं सोदओ बंधो, आज्जतकाले विभंगणाणाभावादो । तस-बादर-पज्जत्ताणं मिच्छाइट्ठिम्हि सोदओ बंधो, थावर-सुहुम-अपज्जत्तएसु विभंगण्णाणाभावादो । तिण्णमाणुपुबीणं वंधो परोदओ, अपज्जत्तकाले विभंगणाणाभावादो । पञ्चएसु ओरालिय-वेउब्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेदव्वा, विभंगणाणस्स अपज्जत्तकालेण सह विरोहादो । अण्णो वि जइ अस्थि भेदो' सो संभालिय वत्तव्यो ।
एक्कट्ठाणी ओघं ॥ २०९ ॥
मिच्छत्त-णqसयवेद-णिरयाउ-णिरयगइ-एइंदिय-बीइंदिय - तीइंदिय-चउरिंदियजादिहुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-णिरयाणुपुवी-आदाव-थावर-सुहुम -अपज्जत्त-साहारणाणमेक्कट्ठाणिसण्णा, एक्कम्हि चेव मिच्छाइटिगुणट्ठाणे बंधसरूवेण अवट्ठाणादो । एदासिं परूवणा ओघतुल्ला । णवरि विभंगणाणीसु एइंदिय-बेइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियजादि-आदाव-थावर
विभंगशानियोंके भी इसीप्रकार कहना चाहिये, क्योंकि, मति-श्रुत अज्ञानियोंसे इनके कोई विशेषता नहीं है । भेद केवल इतना है कि उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीर, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें विभंगज्ञानका अभाव है। प्रस, बादर और पर्याप्तका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्तक जीवों में विभंगज्ञानका अभाव है। तीन आनुपूर्वी नामकोका बन्ध परोदय होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें विभंगज्ञानका अभाव है। प्रत्ययोंमें औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये, क्योंकि, विभंगज्ञानका अपर्याप्तकालके साथ विरोध है । और भी यदि कोई भेद है तो उसको स्मरणकर कहना चाहिये।
एकस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २०९॥
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नारकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, नारकानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इनकी एकस्थानिक संज्ञा है, क्योंकि, एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें इनका बन्ध स्वरूपसे अवस्थान है । इनकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेषता यह है कि विभंगज्ञानियों में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
१ अ-आप्रत्योः ‘पंचसु एसु', काप्रतौ · एसु पंचसु ' इति पाठः । २ अप्रतौ ' इथि भेदो', आ-काप्रयोः ' इत्थि वेदो' इति पाठः । ३ प्रतिषु मिच्छाइट्ठीसु गुणट्ठाणे' इति पाठः ।
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