Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 323
________________ २९४) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २१५. असंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो। थिर-सुभाणमसंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदा त्ति सांतरो बंधो । उवरि णिरंतरो। अवसेसाणं पयडीणं सव्वगुणहाणेसु बंधो णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । देवगइ-वेउव्वियदुगाणं वेउन्विय-वे उब्वियमिस्सपच्चया असंजदसम्मादिविम्मि अवणेदव्वा । सेसपयडीणं पञ्चया ओघतुल्ला । देवगइ-वेउव्वियदुगाणं बंधा सव्वगुणट्ठाणसु देवगइसंजुत्तो। अवसेसाणं पयडीणं बंधो असंजदसम्मादिट्ठिम्हि देव-मणुसगइसंजुत्तो। उवरिमेसु गुणट्ठाणेसु देवगइसंजुत्तो । देवगइ-वेउब्वियदुगाणं दुगइअसंजदसम्मादिट्टि-संजदासंजदा मणुसगइसंजदा सामी । सेसाणं पयडीणं चउगइअसजदसम्मादिट्ठिणो दुगइसंजदासंजदा मणुसगइसंजदा च सामी। असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अपुवकरणे त्ति बंधद्धाणं । अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । णिमिणस्स तिविहो बंधो, धुवाभावादो। अवसेसाणं बंधो सादि-अद्धवो। ___ आहारदुग-तित्थयराणमोघपरूवणमवहारिय भाणिदव्वं । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है। स्थिर और शुभका असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका सब गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। देवगति और वैक्रियिकद्विकके वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र काययोगप्रत्ययोंको असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कम करना चाहिये। शेष प्रकृतियोंके प्रत्यय ओघके समान हैं। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका बन्ध सब गुणस्थानोंमें देवगतिसे संयुक्त होता है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त होता है। उपरिम गुणस्थानों में देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके दो गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि व संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । शेष प्रकृतियोंके चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियोंके संयतासंयत, तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण तक बन्धाध्वान है। अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। निर्माण नामकर्मका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उसका ध्रुव बन्ध नहीं होता। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि व अध्रुव होता है। आहारकद्विक और तीर्थकर प्रकृतिकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाका निर्णय करके करना चाहिये। १ अ-काप्रयोः ‘पयडीए' इति पाठः। . . २ प्रतिषु ' लदो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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