Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, २१२.] णाणमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २८७ उच्चागोदस्स असंजदसम्मादिद्वि-संजदासंजदेसु सोदय-परोदओ, पडिवक्खुदयदसणादो । उवरि सोदओ चेव ।
__ पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ बंधुवरमाभावादो । असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो ताव जसकित्तीए बंधो सांतरो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्ख यडिबंधाभावादो । पच्चया सुगमा । असंजदसम्मादिट्ठीणं देव-मणुसगइसंजुत्तो। उवरिमेसु देवगइसंजुत्तो। चदुगइअसंजदसम्मादिट्ठी, दुगइसंजदासजदा सामी । उवरिमा मणुसा चेव । बंधद्धाणं बंधवोच्छिण्णट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीणं तिविहो बंधो, धुवत्ताभावादो । अवसेसाणं सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
णिद्दा पयला य ओघं ॥ २१२ ॥
णवरि 'असंजदसम्मादिटिप्पहुडि' जाव भणिदव्वं । ओघम्मि 'मिच्छाइट्ठिप्पहुडि' त्ति वुत्तं ; एत्थ पुण असंजदसम्मादिटिप्पहुडि त्ति वत्तव्वं, सण्णाणस हेट्ठिमगुणट्ठाणेसु अभावादो ।
उच्चगोत्रका असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिका उदय देखा जाता है । ऊपर उसका स्वोदय ही बन्ध होता है।
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनके वन्धविश्रामका अभाव है। असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत तक यशकीर्तिका बन्ध सान्तर होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं । असंयतसम्यग्दृष्टियोंके देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। उपरिम जीवोंके देवगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि और दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं। उपरिम गुणस्थानवी मनुष्य ही स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धव्युच्छिन्नस्थान सुगम हैं । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, उनके ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी है।
निद्रा और प्रचलाकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २१२ ॥
विशेषता केवल यह है कि ' असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर' कहना चाहिये । ओघमें 'मिथ्यादृष्टिसे लेकर' ऐसा कहा गया है, परंतु यहां ' असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर' कहना चाहिये, क्योंकि, अधस्तन गुणस्थानों में सम्यग्ज्ञानका अभाव है। इतना ही यहां
१अ-काप्रत्योः भाणिदव्वं ' इति पाठः।
२ प्रतिषु 'पुवं ' इति पाठः।
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