Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१४६]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ एत्थ बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि, उदयाभावादो । तेणेव कारणेण' परोदए बज्झइ । णिरंतरो तित्थयरबंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । दसणविसुज्झदा-लद्धिसंवेगसंपण्णदाअरहताइरिय-बहुसुद-पवयणभत्तीओ तित्थयरकम्मस्स विसेसपच्चया । सेसं सुगमं । मणुसगइसंजुत्तो बंधो । देवा सामी । बंधद्धाणं सुगमं । एत्थ बंधविणासो णस्थि । सादि-अद्धवो बंधो, अणादि-धुवभावेण अवट्टिदकारणाभावादो ।
भवणवासिय-वाण-तर-जोदिसियदेवाणं देवभंगो। णवरि विसेसो तित्थयरं णथि ॥ ८७ ॥
एदेण सुत्तेण देसामासिएण ' तित्थयरं णत्थि ' त्ति बज्झमाणपयडिभेदो चेव परूविदो पुहमुच्चारणाएं । समचउरससंठाण-उवघाद-परघाद उस्सास-पत्तेयसरीर-पसत्थविहायगदि-सुस्सरणामाओ असंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदएणेव बज्झंति । वेउब्वियमिस्स-कम्मइयपचया असंजदसम्मादिट्टिम्हि अवणेदव्वा, भवणवासिय वाणवेंतर-जोदिसिएसु सम्मादिट्ठीणमुक्वादा
. यहां तीर्थंकर नामकर्मके बन्धोदयव्युच्छेदका विचार नहीं है, क्योंकि, देवोंमें उसके उदयका अभाव है। इसी कारण वह परोदयसे बंधती है। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है। दर्शनविशुद्धता, लब्धिसंवेगसम्पन्नता, अरहन्तभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति, ये तीर्थकर कर्मके विशेष प्रत्यय हैं (जो सूत्र ४. में विस्तारसे कहे जा चुके हैं)। शेष प्रत्यय सुगम हैं। मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान सुगम है। यहां बन्धविनाश नहीं है। सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, अनादि व ध्रुव रूपसे अवस्थित रहनेके कारणोंका अभाव है।
भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देंवोंकी प्ररूपणा सामान्य देवोंके समान है। विशेषता केवल यह है कि इन देवोंके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता ॥ ८७ ॥
इस देशामर्शक सूत्रके द्वारा 'तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता' इस पृथक् उच्चारणासे केवल बध्यमान प्रकृतियोंका भेद ही कहा गया है। समचतुरस्त्रसंस्थान, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रत्येकशरीर, प्रशस्तविहायोगति और सुखर नामकर्म असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदयसे ही बंधते हैं । वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कम करना चाहिये, क्योंकि, भवनवासी, पानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यग्दृष्टियोंकी उत्पत्तिका अभाव है। पंचेन्द्रिय जाति
१ अ-कापत्योः 'कालण'; आप्रती कालेणेण ' इति पाठः। २भवणतिए णत्थि तित्थयरं ॥ गो. क. १११. जिणहीणो जोइ-प्रवण-वणे ॥ कर्मग्रन्थ ३, ११. ३ प्रति 'पदमुच्चारणाए ' इति पाठः।
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