Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १७८.
अवगदवेदसु पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीय जसकित्तिउच्चा गोद पंचंतर। इयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १७८ ॥
२६४ ]
सुगम ।
अणियट्टि पहुड जाव सुहुमसां पराइ उवसमा खवा बंधा । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदद्वाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवेससा अबंधा ॥ १७९ ॥
देसामा सिय सुत्तमेदं, बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं दोण्णं चैव परूवणादो । तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा करदे । तं जधा - एदासिं सोलसहं पयडीणं पुत्रं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, तहìवलंभादो ।( एत्थुवउज्जंती गाहा—
आगमचक्खू साहू इंदियचक्खू असेसजीवा जे । देवा य ओहिचक्खू केवलचक्खु जिणा सत्रे || २४|| ) पंचणाणावरणीय चउदसणावरणीय पंचंतराइय- जसकित्ति - उच्चागोदाणं सोदओ चेव
अपगतवेदियों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १७८ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
अनिवृत्तिकरणसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयतकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १७९ ॥
यह सूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, वह बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान इन दोनोंका ही प्ररूपण करता है । इसीलिए इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है— इन सोलह प्रकृतियों का पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है । यहां उपयुक्त गाथा
साधु आगम रूप चक्षुसे संयुक्त, तथा जितने सब जीव हैं वे इन्द्रिय-चक्षुके धारक होते हैं । अवधिज्ञान रूप चक्षुसे सहित देव, तथा केवलज्ञानरूप चक्षुसे युक्त सब जिन होते हैं ॥ २४ ॥
पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पांच अन्तराय, यशकीर्ति और उच्च
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