Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, १८१. ]
वेदमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २६५
बंधो, एत्थ एदासिं धुवोदयत्तदंसणादो । णिरंतरो बंधो, एत्थ बंधुवरमाभावादो । पच्चया सुगमा, ओघम्मि परुविदत्तादो । अगइसंजुत्तो बंधो, अवगदवेदेसु चदुष्णं' गईणं बंधाभावाद । मसा चैव सामी, अण्णत्थ खवगुवसामगाणमभावादो । बंधद्वाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय पंचंतराइयाणं तिविहो बंधो, धुवत्ताभावादो । जसकित्ति - उच्चागोदाणं सादि-अद्भुवा, अद्भुवबंधित्तादो ।
सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ १८० ॥
सुगमं ।
अणियट्टि पहुडि जाव सजोगिकेवली बंधा ! सजोगिकेवलि - अदाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १८१ ॥
दस अथ च । तं जहा - पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिच्जदि, सजोगि
गोत्रका स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इन प्रकृतियोंके ध्रुवोदयित्व देखा जाता है । बन्ध इनका निरन्तर होता है, क्योंकि, यहां बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघ में उनकी प्ररूपणा की जा चुकी है । अगतिसंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अपगतवेदियों में चारों गतियोंके बन्धका अभाव है । मनुष्य ही स्वामी 'हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें क्षपक और उपशामकों का अभाव है । वन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव वन्धका अभाव है । यशकीर्ति और उच्चगोत्रका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवबन्धी हैं ।
सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १८० ॥
यह सूत्र सुगम है ।
अनिवृत्तिकरणसे लेकर सयोगकेवली तक बन्धक हैं । सयोगकेवलिकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १८१ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सयोगकेवली और अयोगकेवली के अन्तिम समयमें क्रमसे
१ प्रतिषु ' चदुडाणं ' इति पाठः ।
छ. बं. ३४.
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