Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, १७१.] वैदभग्गणाए बंधसामित्त
(२४५ सम्मादिट्ठिणो देव-मणुसगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तमगइसंजुत्तं च बंधीत । उच्चागोदं सव्वे देव-मणुसगइसंजुत्तमगइसंजुत्तं च बंधति ।
तिगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्ठिणो सामी, णिरयगदीए इथिवेदस्सुदयाभावादो । दुगइसंजदासजदा सामी, देव-णेरइएसु अणुव्वईणमभावादो । उवरि मणुस्सा चेव, अणत्थुवरिमगुणाभावादो। बंधद्धाणं सुगमं । बंधवाच्छेदो णात्थि । पंचणाणावरणीय च उदंसणावरणीय-च उसंजलण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइट्ठीसु चउविहो बंधो । अण्णत्थ तिविहो, धुवाभावादो । सेसपयडीण सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
बेट्ठाणी ओघं ॥ १७१ ॥
बेट्ठाणी मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठीसु बंधपाओग्गभावेण अवडिदाणि त्ति वुत्तं होदि। तेसिं परूवणा ओघ होदि ओघतुल्लेत्ति जं वुत्तं होदि । एदमप्पणासुत्तं देसामासिय, ओघादो एदम्हि थोवभेदुवलंभादो । तं भण्णमाणसुत्तत्थेण सह सिस्साणुग्गहढे परूवेमो---थीणगिद्धितिय
और असंयतसम्यग्दृष्टि देवगति व मनुष्यगतिसे संयुक्त; तथा उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त और गतिसंयोगसे रहित बांधते हैं । उच्चगोत्रको सब स्त्रीवेदी जीव देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त तथा गतिसंयोगसे रहित बांधते है ।
तीन गतियों के मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत. सम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें स्त्रीवेदके उदयका अभाव है। दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी है, क्योंकि, देव-नारकियोंमें अणुव्रतियोंका अभाव है। उपरिम गुणस्थानवी मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में उपरिम गुणस्थानोंका अभाव है । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद है नहीं। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, चार संज्वलन और पांच अन्तरायोका मिथ्याद्दष्टियाम चारो प्रकारका बन्ध होता है। अन्य गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियों का सादि व अध्रुव वन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
विस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है॥ १७१ ॥
द्विस्थानिकका अर्थ मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें बन्धकी योग्यतासे अवस्थित प्रकृतियां है । उनकी प्ररूपणा ओघ है अर्थात् ओघके समान है, यह अभिप्राय है । यह अर्पणासूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, ओघसे इसमें थोड़ा भेद पाया जाता है। प्रस्तुत सूत्रके अर्थके साथ शिप्योके अनुग्रहार्थ उक्त भेदकी प्ररूपणा करते हैं
१ प्रतिषु ' बेवाणि' इति पाठः ।
२ प्रतिषु ' भण्णमाणे वृत्तण ' इति पाठः ।
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