Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 284
________________ ३, १७७.] वेदमग्गणाए बंधसामित्तं [ २५५ दोण्हं वोच्छेदुवलंभादो । सधगुणहाणेसु बंधो सोदय-परोदओ, परोदए वि संते बंधविरोहाभावादो । भय-दुगुंछाणं सव्वगुणुहाणेसु णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो। हस्स-रदीणं मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति बंधो सांतरो, एत्थ पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो। उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । पच्चया सुगमा, बहुसो परविदत्तादो। मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं बंधीत । णवरि हस्स-रदीओ तिगइसंजुत्तं, णिरयगईए सह बंधविरोहादो । सव्वपयडीओ सासणी तिगइसंजुत्तं बंधइ, तत्थ णिरयगईए बंधाभावादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्टिणो दुगइसंजुत्तं, तत्थ णिरय-तिरिक्खगईणं बंधाभावादो । उवरिमा देवगइसंजुत्तं, तत्थ सेसगईणं बंधाभावादो। णवरि अपुवकरणे चरिमसत्तमभागे अगइसंजुत्तं बंधंति । तिगइमिच्छादिटि-सासणसम्मादिष्टि सम्मामिच्छादिटि-असंजदसम्मादिट्टिणो सामी, णिरयगईए णिरुद्धित्थिवेदाभावादो । दुगइसंजदासजदा सामी, देवगईए देसवईमभावादो । उवरिमा मणुस्सा चेव, अण्णत्थ महबईणमभावादो । बंधद्धाणं बंधविणटाणं च सुगमं । भय-दुगुंछाणं समयमें उनके बन्ध व उदय दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है । सब गुणस्थानोंमें उनका बन्ध स्वोदय-परोदय होता हैं, क्योंकि, अन्य प्रकृतियोंके उदयके भी होनेपर इनके बन्धका कोई विरोध नहीं है । भय और जगुप्साका सव गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध हो क्योंकि, वे धुबवन्धी हैं। हास्य और रतिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर वन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनको प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, उनका बहुत वार प्ररूपण किया जा चुका है । मिथ्यादृष्टि जीव उन्हें चार गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं । विशेष इतना है कि हास्य और रतिको तीन गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, नरकगतिके साथ उनके बन्धका विरोध है । सब प्रकृतियोंको सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त बांधता है, क्योंकि, इस गुणस्थानम नरकगतिका बन्ध नही हाता। सम्यग्मियादृष्टि और असंयतसम्यग्दृाष्टि दो गतियोंसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उन गुणस्थानोंमें नरकगति और तिर्यग्गतिके बन्धका अभाव है । उपारम जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उपरिम गुणस्थानोंमें शेष गतियोंके बन्धका अभाव है। विशेषता यह है कि अपूर्वकरणके अन्तिम सप्तम भागमें गतिसंयोगसे रहित बांधते हैं। तीन गतियोंके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिमें स्त्रोवेदके उदय सहित जीवोंका अभाव है। दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं, क्योंकि, देवगतिमें देशवतियोंका अभाव है। उपरिम गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही स्वामी है, क्योंकि, अन्य गतियों में महाव्रतियोंका अभाव है। वन्धाध्वान और बन्धविनष्पस्थान सुगम हैं। २ अप्रतौ — णिरयगईणं ' इति पाठः । १ प्रतिषु ' चदुण्हं ' इति पाठः। ३ प्रतिषु — देसबगईण. ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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