Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, १७७. ]
वेदमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २५७
देवाउवस्स पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि, अप्पमत्तासंजदसम्मादिट्ठीसु कमेण बंधोदयवाच्छेददंसणादो । सव्वगुणट्ठाणेसु परोद एणेव बंधो, सोदयम्हि बंधस्स अचंताभावस्स अवट्ठाणादो । णिरंतरो बंधो, अंतोमुहुत्तेण विणा बंधुवरमाभावादो । मिच्छाइट्ठिस्स एगूणवंचास, सासणस्स चउवेतालीस, असंजदसम्मादिट्ठिस्स चालीसुत्तरपच्चया, वे उब्विय- वे उव्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयकायजोग - पुरिस-णवुंसयवेदाणमभावादो । उवरि पुरिस - णवुंसयवे दाहारदुवेहि विणा ओघपच्चया चैव वत्तव्वा । सेस सुगमं । सव्वत्थ देवगइसंजुत्तो बंधो, अण्णगईहि सह बंधविरोहादो । तिरिक्ख - मणुस - मिच्छाइट्ठि - सासणसम्माइट्ठि - असंजदसम्माइट्ठि -संजदासंजदा सामी, अण्णत्थ ट्ठियाणं तब्बंधविरोहादो । उवरिमा मणुसा चेव, अण्णत्थ महव्वईणमभावादो । बंधद्धाणं सुगमं । अप्पमत्तद्धाए संखेज्जदिभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । कुदो ? सुत्ताणुसारिगुरूवदेसादो । सादि-अद्भुवो बंधो ।
देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्विय - तेजा - कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण - वेउव्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास- देवगइपाओग्गाणुपुव्वि - अगुरुवलहुव-उवघाद - परघा दुस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त - पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज- णिमिणेसु देवगइ-देव
देवायुका पूर्व में उदय और पश्चात् बन्ध व्युछिन्न होता है, क्योंकि, अप्रमत्त और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमसे बन्ध व उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । सब गुणस्थानों में परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, अपने उदयके होनेपर उसके बन्धका अत्यन्ताभाव है । उसका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तके विना उसके बन्धविश्रामका अभाव है । मिथ्यादृष्टिके उनंचास, सासादन सम्यग्दृष्टिके चवालीस और असंयतसम्यग्दृष्टिके चालीस उत्तर प्रत्यय हैं, क्योंकि, यहां वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र, कार्मण काययोग, पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययों का अभाव है । असंयतसम्यदृष्टि गुणस्थानके ऊपर पुरुषवेद, नपुंसकवेद और आहारकद्विकके विना ओघप्रत्यय ही कहना चाहिये । शेष प्रत्ययप्ररूपण सुगम है । सर्वत्र देवगति से संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ उसके बन्धका विरोध है । तिर्यच और मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि एवं संयतासंयत स्वामी हैं, क्योंकि, अन्यत्र स्थित जीवोंके उसके बन्धका विरोध है । उपरिम गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें महाव्रतियोंका अभाव है । बन्धाध्वान सुगम है । अप्रमत्तकालके संख्यातवें भाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, ऐसा सूत्रानुसारी गुरुका उपदेश है । सादि व अध्रुव बन्ध होता है ।
देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, , स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय व निर्माण, इनमेंसे देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर ७. नं. ३३.
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