Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
३, १७७. ]
वेदमग्गणाए बंधसामितं
[ २५९
विणा बंधुवलंभादो | उवरिमेसु गुणट्ठाणेसु सोदएणेव, अपज्जत्तद्धाए तेसिं गुणाणमभावादी । मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सुभगादेज्जाणं सोदयपरोदओ बंधो । उवरि सोदओ चेव, साभावियादो |
तेजा - कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस - फास - अगुरुअलहुअ - उवघाद - णिमिणाणं बंधेो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो। पंचिंदियजादि-परघादुस्सास-पसत्थविहाय गइ-तस - बादर-पज्जत्त - पत्तेयसरीरसुभग - सुस्सर-आदेज्ज-देवगड - देवगइपाओग्गाणुपुव्वी वे उव्वियसरीर - अंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर - णिरंतरो बंधो । कथं णिरंतरो ? ण, असंखेज्जवाउअतिरिक्ख- मणुस्सेसु निरंतरबंधु
भादो | एवं सासणस्स वि वत्तव्वं । णवरि पंचिंदियजादि - परघादुस्सास-तस - बादर-पज्जत्तपत्तेयसरीराणं बंधो णिरंतरो चेव । सम्मामिच्छाइडिप्पहुडि उवरिमाणं सासणभंगो । णवरि देवगइ-वेउब्वियसरीर-समचउरससंठाण - वेउव्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुव्वी-सुभगसुस्सरादेज्जाणं णिरंतरो बंधो, पडिवक्त्रपयडिबंधाभावादो । थिर-सुभाणं मिच्छाइ जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्ख
।
भी इनका उदयके बिना बन्ध पाया जाता है । उपरिम गुणस्थानों में स्वोदयसे ही बन्ध होता हैं, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें उन गुणस्थानोंका अभाव है । मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सुभग व अदेयका स्वादय परोदय बन्ध होता है । उपरिम गुणस्थानों में स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है ।
तेजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं। पंचेन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय, देवगति, देवगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका मिध्यादृष्टि गुणस्थान में सान्तर - निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका - निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यच और मनुष्यों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है ।
इसी प्रकार सासादन गुणस्थानके भी कहना चाहिये । विशेषता केवल यह है कि पंचेन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका बन्ध निरन्तर ही होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टिसे लेकर उपरिम गुणस्थानों की प्ररूपणा सासादनसम्यग्दृष्टिके समान है । विशेष यह है कि देवगति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, सुभग, सुस्वर और आदेयका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनको प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धका अभाव है । स्थिर और शुभका मिध्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है. क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है। ऊपर इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org