Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२५२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १७५. पुवीणमपच्चक्खाणावरणीयसण्णिदाणं परूवणा ओघतुल्ला। तं जहा- अपच्चक्खाणचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, असंजदसम्मादिट्ठिम्हि चेव तदुभयदंसणादो । मणुसगइपाओग्गाणुपुवीए पुव्वं उदओ पच्छा बंधो, सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु तव्वोच्छेददंसणादो । अवसेसाणं पयडीणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, तहोवलंभादो ।
सव्वासिं पयडीणं बंधी सव्वत्थ सोदय-परोदओ। णवरि सम्मामिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीसु मणुसगइदुग-ओरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं परोदओ बंधो, देवेसुदयाभावादो । अपच्चक्खाणावरणचउक्कस्स बंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्टीसु सांतर-णिरंतरो । कुदो णिरंतरो ? आणदादिदेवेहिंतो इत्थिवेदमणुस्सेसुप्पण्णाणं अंतोमुहुत्तकालं णिरंतरत्तेण तदुभयबंधदंसणादो । उवरि णिरंतरो, देवसम्मामिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरबंधुवलंभादो । एवमोरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंगाणं पि वत्तव्यं, सणक्कुमारादिदेवेहिंतो इत्थिवेदेसुप्पण्णाणं णिरंतरबंधुवलंभादो । वज्जरिसहसंघडणस्स मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सांतरो।
प्ररूपणा ओघके समान है । वह इस प्रकारसे है - अप्रत्याख्यानचतुष्कका वन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें ही उन दोनोंका व्युच्छेद देखा जाता है। मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका पूर्वमें उदय और पश्चात् वन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमशः उनका व्युच्छेद देखा जाता है। शेष प्रकृतियों का पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, वैसा पाया जाता है।
__ सब प्रकृतियोंका बन्ध सर्वत्र स्वोदय परोदय होता है। विशेष इतना है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहननका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, देवोंमें इनका उदयाभाव है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका वन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वह शुववन्धी है । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-क्योंकि, आनतादिक देवोंमेंसे स्त्रीवेदी मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहर्त काल तक निरतर रूपसे उन दोनों प्रकृतियोंका बन्ध देखा जाता है।
सासादनसे ऊपर उनका निरन्तर बन्ध होता है. क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंमें निरन्तर बन्ध पाया जाता है । इसी प्रकार औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगके भी कहना चाहिये, क्योंकि, सनत्कुमारादिक देवोंमेंसे स्त्रीवेदियों में उत्पन्न हुए जीवोंके उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर बन्ध होता है। उपरिम
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