Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१९८१ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १३७. जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमुवलंभादो । तिरिक्खगइतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो । कुदो ? तेउ-वाउकाइएहिंतो वणप्फदिकाइएसुप्पण्णाणं मुहुत्तस्संतो' णिरंतरबंधुवलंभादो । परघादुस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं सांतर-णिरंतरो बंधो। कधं णिरंतरो ? ण, देवेहिंतो वणप्फदिकाइएसुप्पण्णाणं मुहुत्तस्संतो णिरंतर-बंधुवलंभादो । पच्चया सुगमा । गइसंजुत्तादिउवरिमेइंदियपरूवणातुल्ला ।
एवं बादरवणप्फदिकाइयाणं च वत्तव्यं । णवरि बादरस्स सोदओ बंधो, सुहमस्स परोदओ। बादर-[वण'फदि-] पज्जत्ताणं बादरवणप्फदिभंगो । णवरि पज्जत्तस्स सोदओ, अपजत्तस्स परोदओ बंधो । बादरवणप्फदिअपजत्ताणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंगा । सुहुमवण'फदिपजत्तापज्जत्ताणं सुहमेइंदियपज्जत्तापज्जत्तभंगो । तसअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो। णवरि बीइंदियतीइंदिय-चउरिंदिय-पंचिंदियाणं सोदय-परोदओ बंधो। णिगोदजीवाणं तेसिं वादर-सुहुम
सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनका एक समयसे वन्धविश्राम पाया जाता है । तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तेज व वायु कायिकोंमेंसे वनस्पतिकायिकोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहुर्त तक निरन्तर बन्ध पाया जाता है । परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-यह ठीक नहीं, क्योंकि, देवों से वनस्पतिकायिकों में उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहर्त तक निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
प्रत्यय सुगम हैं । गतिसंयुक्तता आदि उपरिम प्ररूपणा एकेन्द्रिय प्ररूपणाके समान है।
इसी प्रकार बादर वनस्पतिकायिकोंके भी कहना चाहिये । विशेषता केवल इतनी है कि बादरका स्वोदय बन्ध होता है और सूक्ष्मका परोदय । वादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंकी प्ररूपणा वादर वनस्पतिकायिकोंके समान है। विशेषता यह है कि पयोप्तका स्वादय और अपयोप्तका परोदय बन्ध होता है । बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त व अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्तोंके समान है। त्रस अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है। विशेषता यह है कि द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। निगोद जीव व
१ प्रतिषु । मुहुत्तो' इति पाठः । २ अप्रती व काव्वं ', आप्रती · वतन्वं ' इति पाठः । ३ अप्रतौ — सहुमेहंदियपज्जत्तभंगो' इति पाठः। ४ प्रतिषु ' तस.' इति पाठः ।
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