Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, १४५. ]
जगमगणाए बंधसामित्तं
[२०७
णिद्दा - पयला - बारसकसाय - हस्स - - रदि - अरदि - सोग-भय- दुगंच्छा-असादावेदणीय उच्चागोदाणं सोदय - परोदओ बंधो । कधमुच्चागोदबंधो सम्मादिडीसु परोदओ ? ण, तिरिक्खेसु पुत्र्वा उवबंधवसेणुप्पण्णखइय सम्मादिट्ठीस परोदणुच्चागोदस्स बंधुवलंभादो । पुरिसवेद - समचउरससंठाण- सुभगादेज्ज-जस कित्तीणं मिच्छाइट्ठि - सासणेसु सोदय - परोदओ । असंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदओ । पंचिंदियजादि-तस - बादर · पज्जत्त- पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सोदय-परोदएण बंधो। सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदएण । परघादुस्सास -पसत्थविहायगइ- अप्पसत्थविहायगइ- सुस्सराणं तिसु वि गुणट्ठाणेसु परोदएण बंधो । अजसकित्तीए मिच्छादिट्ठिसासणसम्मादिट्ठीसु सोदय - परोदएण बंधो, असंजदसम्मादिडीसु परोदएण |
पंचणाणावरणीय--छदंसणावरणीय - बारसकसाय--भय- दुगुंछा तेजा - कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-उवघाद - णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो । असाद - हस्स-रदिअरदि-सोग-जसकित्ति-अजसकित्ति-थिराथिर-सुभासुभाणं सांतरा बंधो, तिसु वि गुणट्ठाणेसु एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । पुरिसवेद-समचउरससंठाण-सुभगादेज-उच्चागोद-पसत्थविहाय
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, असातावेदनीय और उच्चगोत्रका स्वोदयपरोदय बन्ध होता है ।
शंका-सम्यग्दृष्टियों में उच्चगोत्रका परोदय बन्ध कैसे होता है ?
समाधान — यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, पूर्व आयुबन्धके वशसे तिर्यचॉमें उत्पन्न हुए क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में परोदयसे उच्चगोत्रका बन्ध पाया जाता है ।
पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, सुभग, आदेय और यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में खोदय-परोदय बन्ध होता है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इनका स्वोदय बन्ध होता है । पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में स्वोदय - परोदय से बन्ध होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में स्वोदय से बन्ध होता है । परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति और सुस्वरका तीनों ही गुणस्थानों में परोदय से बन्ध होता है । अयशकीर्तिका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदयसे और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में परोदयसे बन्ध होता है ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर वन्ध होता है, । असाता वेदनीय, हास्य, रति, अति, शोक, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तीनों ही गुणस्थानों में इनका एक समयसे बन्धविश्राम देखा जाता है । पुरुषवेद, समचतुरनसंस्थान, सुभग, आदेय, उच्चगोत्र, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका मिथ्यादृष्टि व
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