Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
२१.] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १४७. एदस्स अत्थो उच्चदे- अणंताणुबंधिचउक्क-त्थीवेद-चउसंठाण-पंचसंघडण-दुभगअणादेज्ज-णीचागोदाणं बंधोदया सासणसम्माइट्ठिम्हि समं वोच्छिज्जति, ण मिच्छाइट्ठिम्हि; अणुवलंभादो । अवसेसाणं पयडीणमेत्थुदयबोच्छेदो णत्थि, उवरि तदुवलंभादो । केवलो एत्थ बंधवोच्छेदो चेव, तस्स दंसणादो ।
थीणगिद्धितिय-तिरिक्खगइ मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सराणं परोदओ बंधो, अपज्जत्तएसु एदासिमुदयाभावादो । ओरालियसरीरस्स सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो । ओरालियसरीरअंगोवंगस्स मिच्छाइद्विम्हि सोदय-परोदओ बंधो, सासणे सोदओ । अणंताणुबंधिचउक्क-इत्थिवेद-तिरिक्खगइ-मणुसगइ-चउसंठाण-पंचसंघडण-दुभगअणादेज्ज-णीचागोदाणं दोसु वि गुणट्ठाणेसु सोदय-परोदओ बंधो, अद्धवोदयत्तादो । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्क-ओरालियसरीराणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधित्तादो । इत्थिवेद-चउसंठाण-पंचसंघडण-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्जाणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-णीचागोदाणं
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, चार संस्थान, पांच संहनन, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रका बन्ध व उदय दोनों सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें नहीं. क्योंकि. वहां इनका व्युच्छेद पाया नहीं जाता। शेष प्रकृतियोंका यहां उदयव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, ऊपर उनका उदय पाया जाता है । उनका यहां केवल बन्धव्युच्छेद ही है, क्योंकि, वह यहां देखनेमें आता है।
स्त्यानगृद्धित्रय, तिर्यग्गति व मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त. विहायोगति और दुस्वरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तोंमें इनके उदयका अभाव है । औदारिकशरीरका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां वह ध्रुवोदयी है। औदारिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, सासादनमें स्वोदय बन्ध होता है । अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, चार संस्थान, पांच संहनन, दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रका दोनों ही गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी हैं । स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और औदारिकशरीरका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवबन्धी हैं। स्त्रीवेद, चार संस्थान, पांच संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, और अनादेयका सान्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका बन्ध मिथ्याडषि
१ आप्रतौ ' चउक्किन्थी-' इति पाठः । २ प्रतिषु तत्थ- ' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org