Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, १५४.] · जोगमगणाए बंधसामित
[२१७ पज्जत्तस्स अंतोमुहुत्तं गंतूण आणापाणपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स उस्सासस्सोदयदंसणादो। णिहा-पयला-सादासाद बारसकसाय-सत्तणोकसाय-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुभगसुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सोदय-परोदओ बंधो, असुहाणं णरइएसु उदयदंसणादो । मणुसगइ-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीण परोदओ बंधो, वेउव्वियकायजोगम्मि एदासिमुदयविरोहादो ।
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-ओरालिय-तेजा कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास- अगुरुवलहुव-उवघाद -परघादुस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-- णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधित्तादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोगथिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदंसणादो । पुरिसवेद-समचउरससंठाण-वज्जरिसहसंघडण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जुच्चागोदाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो । सम्मामिच्छादिट्ठिअसंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। पंचिंदियजादि-ओरालियसरीर
होता है, क्योंकि, शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्त जाकर आनप्राणपर्याप्तिसे पर्याप्त होनेपर उच्छ्वासका उदय देखा जाता है । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्र, इनका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, नारकियों में अशुभ प्रकृतियोंका उदय देखा जाता है। मनुष्यगति, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वैक्रियिककाययोगमें इनके उदयका विरोध है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, वारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवबन्धी हैं । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है। पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है। सम्यग्मिथ्यादृाष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंक, यहां प्रतिपक्ष प्रक्रतियोंके बन्धका अभाव है। पंचन्द्रिय ...२८.
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