Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
३, १५५.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं
[ २२० __ थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । इत्थिवेदचउसंठाण-चउसंघडण-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग दुस्सर-अणादेज्जाणं सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधदंसणादो । तिरिक्खगइ तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि-णीचागोदाणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो। कंचं णिरंतरो ? सत्तमपुढविणेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणे सांतरो, अपज्जतद्वाए सत्तमपुढविट्ठियसासणाणुवलंभादो ।
पच्चया सुगमा। तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बी-उज्जोवाणि तिरिक्खगइसंजुत्तं, अवसेसाओ तिरिक्ख-मणुस्सगइसंजुत्तं बंधति । मिच्छाइट्ठिदेव-णेरइया, सासणा देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणठ्ठट्ठाणं च सुगमं । सत्तण्हं धुवबंधपयडीणं मिच्छाइटिम्हि बंधो चउव्विहो । सासणे दुविहो, अणादि-धुवाभावाद। । सेसाणं सम्वत्थ सादि-अद्धवो ।
मिच्छत-णबुसयवेद-एइंदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-आदाव-थावराणं परूवणं कस्सामा - मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, उवरि तदुभयाणुवलंभादो । णवंसय
स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुवन्धिचतुष्कका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुववन्धी है । स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध देखा जाता है। तिर्यग्गति,तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? समाधान-क्योंकि, सप्तम पृथिवीके नारकियों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
सासादन गुणस्थानमें सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें सप्तम पृथिवीस्थ सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंका अभाव है।
प्रत्यय सुगम हैं । तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायाग्योनुपूर्वी और उद्योतको तिर्यग्गतिसे संयुक्त, तथा शेष प्रकृतियोंको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । मिथ्याष्टि देव व नारकी, तथा सासादनसम्यग्दृष्टि देव स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्ठस्थान सुगम हैं। सात ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है। सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि व ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सर्वत्र सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, एकेन्द्रियजाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, आताप और स्थावर प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करते हैं-मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों [मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ] साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि,मिथ्यात्व गुणस्थानसे ऊपर
१ प्रतिषु तदुदयाशुवलंभादो' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org