Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 260
________________ [ २३१ जोगमगणार बंधसामित्तं बंधो, णिमिण-तित्थयर-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं-णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर - सुहासुह-जसकित्ति अजसकित्तीणं सांतरा एसमएण बंधुवरमदंसणादो । ३, १५८. ] बारस चदुसंजल - पुरिसवेद-हस्स-रदि - अरदि - सोग-भय-दुर्गुछा - आहार काय जोगेहि पच्च एहि एदाओ पयडीओ वज्झति । सेसं सुगमं । एदासिं बंधो देवगदिसंजुत्तो । मणुसा सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि । धुवबंधपयडीणं तिविहो बंधो, धुवाभावाद । अवसेसाणं सादि-अद्भुवो । एवमाहार मिस्स काय जोगीणं पि वत्तव्वं । वरि परघादुस्सास - पसत्थविहायगइदुस्सराणं परोदओ बंधो । पुव्वमोरालियसरीरस्स उदए संते एदासिं संतोदयाणं कधमेत्थ अकारणेण उदयवोच्छेदो होज्ज ? ण, ओरालियसरीरोद एणोदइलाणं तदुदयाभावेणेदासिमुदयाभावस्स इयत्ता दो । पच्चएस आहारकायजोगमवणेदूण आहार मिस्सकायजोगो पक्खिविदव्वो । एत्तिओ चेव भेदो, णत्थि अण्णत्थ कत्थ वि । और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समय से इनका बन्धविश्राम देखा जाता है । ये प्रकृतियां चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और आहारकाययोग, इन वारह प्रत्ययोंसे बंधती हैं। शेष प्रत्ययप्ररूपण सुगम है । इनका बन्ध देवगति से संयुक्त होता है । मनुष्य स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है | ध्रुवप्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है । इसी प्रकार आहारमिश्रकाययोगियोंके भी कहना चाहिये । विशेषता केवल इतनी है कि इनके परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति और दुस्वरका परोदय बन्ध होता है । शंका- चूंकि पूर्व में औदारिकशरीर के उदयके होनेपर इनका उदय था, अतएव अब यहां उनका निष्कारण उदयव्युच्छेद क्यों हो जाता है ? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, औदारिकशरीर के उदयके साथ उदयको प्राप्त होनेवाली इन प्रकृतियोंका उसके उदयका अभाव होनेसे उदयाभाव न्याययुक्त है । प्रत्ययों में आहारकाययोगको कम करके आहारमिश्रकाययोगको जोड़ना चाहिये । केवल इतना ही भेद है, और कहीं कुछ भेद नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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