Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
२०२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १४१. कायव्वा । णवरि एक्कम्हि मणजोगे णिरुद्ध अवसेससव्वजोगा मूलोधुत्तरपच्चएसु अवणेदव्वा । अवसेसा णिरुद्धमणजोगीणं पच्चया होति । णत्थि अण्णत्थ कत्थ वि विसेसो ।
वचिजोगीणमेवं चेव वत्तव्वं, सांतर-णिरंतर-सोदय-परोदय-सामित्तपच्चयादीहि मणजोगीहिंतो वचिजोगणिं भेदाभावादो । णवीर बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदियाणं सोदय-परोदओ बंधो त्ति वत्तव्यं । असच्च-मोसवचिजोगीणं वचिजोगिभंगो। णवरि सव्वगुणाणं उत्तरपच्चएसु असच्च-मोसवचिजोगं मोत्तूण सेससव्वजोगा अवणेदव्वा । सच्च-मोस-सच्चमोसवचिजोगीणं सच्च-मोस-सच्चमोसमणजोगिभंगो, विसेसाभावादो।
कायजोगीण पि ओघभंगो चेव । णवरि सव्वगुणट्ठाणाणमोधपच्चएसु मण-वचिजोगट्ठ. पच्चया अवणेदव्या । सजोगिपच्चएसु दोदोमण-वचिजोगपच्चया अवणेदव्या । णत्थि अण्णत्थ विसेसो । ओघम्मि पुव्वुत्तसत्तारससुत्तेसु चउत्थसुत्तम्मि भेदपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ १४१ ॥
विशेषता यह है कि एक मनोयोगके निरुद्ध होनेपर शेष सब योगोंको मूलोघ उत्तर प्रत्ययोंमेंसे कम करना चाहिये । इस प्रकार शेष रहे निरुद्धमनोयोगियोंके प्रत्यय होते हैं। अन्यत्र और कहीं विशेषता नहीं है।
वचनयोगियोंके भी इसी प्रकार ही कहना चाहिये, क्योंकि सान्तर निरन्तर, स्वोदय-परोदय, स्वामित्व और प्रत्ययादिकोंकी अपेक्षा मनोयोगियोंसे वचनयोगियोंके कोई भेद नहीं है । विशेष इतना है कि द्वीन्द्रिय, त्रोन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जातिका स्वोदय-परोदय वन्ध होता है, ऐसा कहना चाहिये । असत्यमृषावचनयोगियोंकी प्ररूपणा वचनयोगियोंके समान है। विशेषता यह है कि सब गुणस्थानोंके उत्तर प्रत्ययोंमेंसे असत्यमृषावचनयोगको छोड़कर शेष सब योगोंको कम करना चाहिये । सत्य, मृषा और सत्यमृषा वचनयोगियोंकी प्ररूपणा सत्य, मृषा और सत्यमृषा वचनयोगियोंके समान है, क्योंकि, कोई विशेषता नहीं है।
काययोगियोंकी भी प्ररूपणा ओघके समान ही है। विशेष इतना है कि सब गुणस्थानोंके ओघ प्रत्ययोंमेंसे चार मनोयोग और चार वचनयोग, इस प्रकार आठ प्रत्ययोंको कम करना चाहिये। अन्यत्र विशेषता नहीं है। ओघमें पूर्वोक्त सत्तरह सूत्रों से चतुर्थ सूत्रमें भेद प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं
साता वेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं है ॥ १४१ ॥
१ प्रतिषु ‘पुब्विवृत्त- ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org