Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, १४०.
जोगमग्गणाए बंधसामित्तं चरिंदिय-पंचिंदियाणं सोदय-परोदओ बंधो । तस-बादराणं सोदओ चेव । एइंदिय-थावरसुहुम-साहारणादावाणं परोदओ चेव बंधो । अवसेसाणं पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्ताणं उत्तिविहाणेण वत्तव्वं ।
जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-कायजोगीसु ओघं णेयव्वं जाव तित्थयरेत्ति ॥ १४ ॥
___ ओघम्मि उत्तसत्तारसण्हं सुत्ताणमत्थो ससुत्तो एत्थ णिरवयवो वत्तव्वो, भेदाभावादो। णवरि पच्चयगदो भेदो अत्थि तं परवेमो- मणजोगे णिरुद्ध छाएत्तालीस एक्केत्तालीस सत्ततीस [सत्ततीस ] बत्तीस उणवीस सत्तारस सत्तारस एक्कारस दस णव अट्ट सत्त छ पंच [पंच चत्तारि चत्तारि ] दोणि मिच्छाइटिप्पहुडिसव्वगुणट्ठाणाणं जहाकमेण एदे पच्चया होति । अण्णो वि विसेसो मणजोगे णिरुद्ध संते अत्थि- चदुजादि चत्तारिआणुपुवीआदाव-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणाणं परोदएण', उवघाद-परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्तपत्तेयसरीर-पंचिंदियजादीणं सोदएण बंधो त्ति वत्तव्वं । एवं चेव चदुण्हं मणजोगाणं परूवणा
हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । प्रस और बादरका स्वोदय ही बन्ध होता है। एकेन्द्रिय, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और आतापका परोदय ही बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंके पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंकी प्ररूपणाके अनुसार कहना चाहिये।
__ योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी और काययोगियोंमें तीर्थकर प्रकृति तक आपके समान जानना चाहिये ।। १४०॥
ओघमें कहे हुए सत्तरह (५ वें सूत्रसे ३८ में सूत्र तक १७+१७=३४) सूत्रोंका अर्थ ससूत्र यहां संपूर्ण कहना चाहिये, क्योंकि, ओघसे यहां विशेषताका अभाव है। विशेष यह है कि प्रत्ययगत जो कुछ भेद है उसे यहां कहते हैं-मनोयोगके निरूद्ध होने अर्थात् उसके आश्रित व्याख्यान करनेपर छयालीस, इकतालीस, सैंतीस,[सैंतीस] बत्तीस, उन्नीस, सत्तरह, सत्तरह, ग्यारह, दश, नौ, आठ, सात, छह, पांच, [पांच, चार, चार] और दो, इस प्रकार ये क्रमसे मिथ्यादृष्टि आदि सब गुणस्थानोंके प्रत्यय होते हैं। मनोयोगके निरुद्ध होनेपर और भी विशेषता है- चार जातियां, चार आनुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इनका परोदयसे तथा उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर और पंचेन्द्रिय जातिका खोदयसे बन्ध होता है, ऐसा कहना चाहिये । इसी प्रकार ही चार मनोयोगोंकी प्ररूपणा करना चाहिये।
१ प्रतिषु सत्तारस' इति पाठः। २ मण-वयणसत्तगे ण हि ताविगिविगलं च थावराणुचओ ॥ गो. क. ३१०.
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