Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१६२ ]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १०२.
एगसमइयजहण्णुक्कस्सपच्चया ।
तिरिक्खाउ-[तिरिक्खगइ-] तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-आदावुज्जोव-थावर-सुहुमसाहारणसरीराणि तिरिक्खगइसंजुत्तं बझंति । मणुस्साउ-मणुस्सगइ-मणुस्साणुपुवी-उच्चागोदाणि मणुसगइसंजुत्तं बज्झति । अवसेसाओ पयडीओ तिरिक्खगइ-मणुसगइमंजुत्तं बंज्झति, दुगईहि विरोहाभावादो । एइंदिया सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि । पंचणाणावरणीयणवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णच उक्क-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं चउविहो बंधो । अवसेसाणं सादि-अद्धवो ।
एवं बादरएइंदियाणं । णवरि बादरं सोदएण वज्झदि । सुहुमस्स परोदओ बंधो । बादरएइंदियपज्जत्ताणं वादरेइंदियभंगो। णवरि पज्जत्तस्स सोदओ, अपज्जत्तस्स परोदओ बंधा। बादरएइंदियअपज्जत्ताणं पि बादरएइंदियभंगो। णवरि थीणगिद्धितिय-परघादुस्सास-आदावुलोवपज्जत्त-जसकित्तीणं परोदओ बंधो। अपज्जत्त-अजसकित्तीणं सोदओ। परघादुस्सास-बादर
प्रत्यय होते हैं। - तिर्यगायु, [तिर्यग्गति,] तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म
और साधारणशरीरको तिर्यग्गतिसे संयुक्त बांधते हैं । मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रको मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। शेष प्रकृतियोंको तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, दोनों गतियोंके साथ उनके वन्धका विरोध नहीं है । एकेन्द्रिय जीव स्वामी हैं । वन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद है नहीं। पांच शानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात निर्माण और पांच अन्तराय, इनका चारों प्रकारका वन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अधुव वन्ध होता है।
इसी प्रकार यादर एकेन्द्रिय जीवोंकी भी प्ररूपणा है । विशेष इतना है कि इनके बादर नामकर्म स्वोदयसे वंधता है। सूक्ष्म प्रकृतिका वन्ध परोदयसे होता है। वादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रियों के समान है। विशेपता केवल इतनी है कि उनके पर्याप्त प्रकृतिका स्वोदय और अपर्याप्त प्रकृतिका परोदय वन्ध होता है। बादर एकेन्द्रिय अपयाप्त जीवांकी भी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रियोंके समान है। विशष यह है कि स्त्यानगृद्धित्रय, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत. पर्याप्त और यशकीर्तिका उनके परोदय बन्ध होता है । अपर्याप्त और अयशकीर्तिका स्वोदय वन्ध होता है। परघात,
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१ अग्रतौ — बंधंति ' इति पाठः ।
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