Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१७४ ] . छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १०५. पयडीए बंधाभावादो । उच्चागोदस्स मिच्छाइटि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो । असंखेज्जवासाउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु, संखेज्जवासाउअसुहतिलेस्सिएसु णिरंतरबंधदसणादो । उवरिमगुणेसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो । पच्चयाणं मूलोधभंगो । गइसंजुत्तादि उवरि जाणिय वत्तव्वं ।
__णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-अणंताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडणतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-- अणादेज्ज-णीचागोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १०५॥
सुगमं ।
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १०६॥
प्रतिपक्ष प्रकृतिके वन्धका अभाव होनेसे उसका निरन्तर बन्ध होता है । उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्योंमें, तथा संख्यातवर्षायुष्क तीन शुभ लेश्याघालोंमें उसका निरन्तर बन्ध देखा जाता है। उपरिम गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका अभाव है। प्रत्ययोंकी प्ररूपणा मूलोघके समान है। गतिसंयुक्तादि उपरिम पृच्छाओंके विषयमें जानकर कहना चाहिये ।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १०५॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं
१ प्रतिषु ण संखेज्ज-' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org