Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१९.] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १३२. णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । पंचिंदियजादीए मिच्छाइट्ठीसु सांतर-णिरंतरो । कधं णिरंतरो ? ण, सणक्कुमारादिदेवेसु णेरइएसु असंखेज्जवासाउअ-सुहतिलेस्सियतिरिक्ख मणुस्सेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणादीसु णिरंतरो बंधो, तत्थ एइंदियजादिआदीणं बंधाभावादो । एवं परधादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं पि वत्तव्यं, भेदाभावादो । समचउरससंठाणपसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जाणं मिच्छाइटि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो बंधो । क, णिरंतरो ? ण, असंखेज्जवासाउएसु एदासिं णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । थिर-सुभाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति सांतरो, पडिवक्खपयडीए बंधसंभवादो । उवरि णिरंतरो। देवगइ-वेउब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगदेवगइपाओग्गाणुपुब्बीणं मिच्छाइट्ठि-सासणेसु सांतर-णिरंतरो, सुहतिलेस्सियतिरिक्ख-मणुस्सेसु णिरंतरबंशुवलंभादो । उवरि णिरंतरो । पच्चया सुगमा । सेसं ओघभंगो ।
निर्माण, इनका सब गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, धृवबन्धी हैं। पंचेन्द्रिय जानिका मिथ्यादृष्टियों में सान्तर निरन्तर बन्ध होता है ।
शंका--निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान--यह ठीक नहीं, क्योंकि, सानत्कुमारादि देव, नारकी, असंख्यातवर्षा युष्क और शुभ तीन लेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्योंमें निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि आदि उपरिम गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों में एकेन्द्रियजाति आदिकोंका बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरके भी कहना चाहिये, क्योंकि, इनके कोई विशेषता नहीं है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान- यह ठीक नहीं, क्योंकि. असंख्यातवर्षायुषकोंमें इनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
उपरिम गुणस्थानोंमें इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धका वहां अभाव है । स्थिर और शुभका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतिका बन्ध सम्भव है। इससे ऊपर निरन्तर बन्ध होता है । देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, शुभ तीन लेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्योंमें निरन्तर वन्ध पाया जाता है। इससे ऊपर निरन्तर बन्ध होता है । प्रत्यय सुगम हैं । शेष प्ररूपणा ओघके समान है।
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