Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१८८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १३२. मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अपुवकरणपइहउवसमा खवा बंधा । अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ १३२ ॥
एदस्सत्थो वुच्चदे- देवगइ-वेउब्वियसरीर-अंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुचीणं पुब्बमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिण्णो, अपुवकरणासंजदसम्मादिट्ठीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्त-सुभग-आदेज्जाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, अपुवकरणाजोगीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । तेजा-कम्मइय-समचउरससंठाण-वण्ण-गंध-रसफास-अगुरुवलहुव-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुस्सरणिमिणणामाणमेवं चेव वत्तव्वं, अपुवकरण-सजोगीसु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो ।
देवगइ-वेउव्वियसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-देवगइपाओग्गाणुपुवीणं परोदओ बंधो, उदए संते एदासिं बंधविराहादा । पंचिंदिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-तस-बादर-पज्जत्त-थिर-सुह-णिमिणाणं सोदएणेव बंधो, धुवोदयत्तादो। परघादुस्सास
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १३२ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमशः उनके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग और आदेय, इनका पूर्वमें यन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और अयोगकेवली गुणस्थानों में क्रमसे इनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुस्वर और निर्माण नामकर्म, इनके भी बन्ध व उदयका व्युच्छद इसी प्रकार कहना चाहिये, क्योकि, अपूर्वकरण और सयोगकेवली गुणस्थानों में इनके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है।
देवगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उदयके होनेपर इनके बन्धका विरोध है । पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, शुभ और निर्माण नामकर्मका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं। परघात,
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