Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१९४]
छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १३७.
स्साउ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभारादो धुवबंधित्तादो च । सादासाद-सत्तणोकसायमणुसगइ-एइंदिय-बीइंदिए-तीइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदियजादि-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंगछसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-आदाउज्जोव-दोविहायगइ-तस-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-दुभग सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमदसणादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बीणीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो । कध-णिरंतरो ? ण, तेउ-बाउकाइएहिंतो पुढविकाइएसुप्पण्णाणं णिस्तरबंधुवलंभादो । परघादुस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं पि सांतर-णिरंतरो बंधो। कधं णिरंतरो ? ण, देवाण पुढविकाइएसुप्पण्णाणं मुहुत्तस्संते णिरंतरबंधुवलंभादो।
___ एदेसिं पच्चया एइंदियपच्चएहि समा । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-एइंदिय-बीइंदिय
तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनके वन्धविश्रामका अभाव है, तथा ये ध्रुवबन्धी भी हैं। साता व असाता वेदनीय, सात नोकपाय, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुप्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, सुक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है । तिर्यगति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर वन्ध कैसे होता है ?
समाधान-यह ठीक नहीं, क्योंकि, तेज व वायु कायिकोंमेसे पृथिवीकायिकों में उत्पन्न हुए जीवोंके निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
परघात, उच्छ्वास, वादर, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका भी सान्तर निरन्तर बन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान—यह ठीक नहीं, क्योंकि, पृथिवीकायिकोंमें उत्पन्न हुए देवोंके अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
इन प्रकृतियोंके प्रत्यय एकेन्द्रियप्रत्ययोंके समान हैं। तिर्यगायु, तिर्यग्गति,
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