Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, १०२.] पंचिंदियअपज्जत्तरसु बंधसामित्तं
[ १६९ गोदाणं परोदएण बंधो, एदासिमेत्थ उदयविरोहादो।
पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय- दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुस्साउ-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ एदासिं धुवबंधित्तादो। सादासाद-सत्तणोकसाय-मणुसगइ-एइंदियबीइंदिय-तीइंदिय-च उरिदिय-पंचिंदियजादि-छसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-छसंघडण-मणुसगइ. पाओग्गाणुपुबी-परघादुस्सास-आदाउज्जोव-दोविहायगइ-तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्तपत्तेय-साहारणसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दुभग सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्तिअजसकित्ति-उच्चागोदाणं सांतरो बंधो, एगसमएणेदासिं बंधुवरमदंसणादो । तिरिक्खगइतिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधे। । कधं णिरंतरो ? ण, तेउ-वाउकाइएहितो पंचिंदियअपज्जत्तएसुप्पण्णाणमंतोमुहुत्तकालमेदासिं णिरंतरबंधुवलंभादो ।
पंचिंदियअपज्जत्ताणमेदाओ पयडीओ बंधमाणाणं' पंच मिच्छत्ताणि, बारस असंजम,
होता है, क्योंकि, यहां इनके उदयका विरोध है ।
पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवबन्धी हैं । साता व असाता वेदनीय, सात नोकषाय, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जाति, छह संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, स्थावर, वादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्र, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है । तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर-निरन्तर वन्ध होता है।
शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ?
समाधान-यह ठीक नहीं, क्योंकि, तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंमेंसे पंचन्द्रिय अपर्याप्तोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है।
इन प्रकृतियों को बांधनेवाले पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके पांच मिथ्यात्व, बारह
१ प्रतिषु — बंधणाणं ' इति पाठः ।
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