Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१७०] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १०३. सोलस कसाय, सत्त णोकसाय दोण्णि जोग त्ति बादालीस पच्चया होति । तिरिक्ख-मणुस्साउआणं एक्केतालीस पच्चया, कम्मइयपच्चयाभावादो । सेसं सुगमं ।।
तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादि-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बी-आदाउज्जोव-थावर-सुहुम-साहारणसरीराणं तिरिक्खगइसंजुत्तो बंधो । मणुस्साउमणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वी-उच्चागोदाणं मणुसगइसंजुत्तो । सेसाणं पयडीणं बंधो तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तो । पंचिंदियअपज्जत्ता सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णत्थि । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं चउविहो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं सादि-अद्धवो।
पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-जसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १०३॥
एदं पुच्छासुत्तं देसामासिय, तेणेदेण सूइदत्थाणं परूवणा कीरदे । तं जहा - किं
असंयम, सोलह कषाय, सात नोकपाय और दो योग, इस प्रकार ब्यालीस प्रत्यय होते हैं। तिर्यगायु और मनुष्यायुके इकतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, उनके कार्मण प्रत्ययका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है।
तिर्यगायु, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण शरीर, इनका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है। मनुष्याय, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानपूर्वी और उच्चगोत्रका मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा शेष प्रकृतियोंका बन्ध तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है । पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव स्वामी हैं । वन्धाध्वान सुगम है। बन्धव्युच्छेद यहां है नहीं। पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका चार प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी हैं । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है।
पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥१०३॥
यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है, इसलिये इसके द्वारा सूचित अर्थोकी प्ररूपणा
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