Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१५८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, १०२. ___ एत्थ असंजदसम्मादिविम्हि बाएत्तालीस पच्चया, ओघपच्चएसु ओरालियदुगित्थिणqसयवेदपच्चयाणमभावादो। सेसं सुगम । एदासिं पयडीण बंधो मणुसगइसंजुत्तो । देवा सामी । बंधद्धाणं सुगमं । बंधविणासो एत्थ णत्थि । पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय बारसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुगलहुग-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं तिविहो बंधो, धुवाभावादो । सेसाणं पयडीणं सादि-अद्धवो, अधुवबंधित्तादो । - इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-पज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिंदियअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो ॥ १०२ ॥
एदमप्पणासुत्त देसामासिय, बज्झमाणपयडीणं संखमवेक्खिय अवविदत्तादो । तेणेदेण सूइदत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा- एत्थ ताव बज्झमाणपयडिणिद्देसं कस्सामो । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सादासाद-मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसाय-तिरिक्खाउ
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यहां असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें ब्यालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंमेंसे औदारिकद्विक, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंका अभाव है। शेष प्रत्ययप्ररूपण सुगम है । इन प्रकृतियोंका बन्ध मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है। देव स्वामी हैं। वन्धाध्वान सुगम है । बन्धविनाश यहां है नहीं । पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस,स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं ।
इन्द्रियमार्गणानुसार एकेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म, इनके पर्याप्त व अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त तथा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है ॥ १०२॥
- यह अर्पणासूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, बध्यमान प्रकृतियोंकी [१०९] संख्याकी अपेक्षा करके अवस्थित है। इसी कारण इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- यहां पहिले बध्यमान प्रकृतियोंका निर्देश करते हैं । पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनाघरणीय, साता व असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यगायु,
१ अप्रतौ ' चरिंदियपज्जत्ता अपज्जत्ता पंचिंदियपज्जत्ता अपज्जत्ताणं ', आप्रती । चरिंदियपज्जतापन्नता , काप्रतौ ' चउरिंदियपज्जत्त अपज्जहाणं' इति पाठः ।
१ अप्रतौ ' मुप्पण्णासुतं'; आप्रतौ ‘-मुप्पण्णमुत्तं ' इति पाठः ।
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