Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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आणदादिदेवेसु बंधसामित्तं ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगशाओग्गाणुपुवी-अगुरुअलहुअ-उवधाद-परघाद-उस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एत्थ धुवबंधित्तादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ--जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरा, एगसमएण बंधविरामदंसणादो । पुरिसवेद-समचउरससंठाण-बजरिसहसंघडण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जुच्चागोदाणि मिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्टिणो सांतरं बंधंति, एगसमएण बंधविरामुवलंभादो । सम्मामिच्छादिवि-असंजदसम्मादिट्ठिणो णिरंतरं बंधति, पडिवक्खपयडीण बंधाभावादो।।
एदासिं पच्चया देवोधपच्चयतुल्ला । णवीर सव्वत्थ इस्थिवेदपच्चओ अवणेदव्यो । सब्वे सव्वाओ पयडीओ मणुसगइसंजुत्तं बंधंति, अण्णगईण बंधाभावादो । देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणदुट्ठाणं च सुगमं । पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-बारसकसाय-भयदुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर- वण्ण--गंध-रस फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइद्विम्हि चउव्विहो बंधो । अण्णत्थ तिविहो, धुवाभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सव्वगुणट्ठाणेसु सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघाद, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये प्रकृतियां ध्रुवबन्धी है। साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्ति, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम देखा जाता है। पुरुषवेद, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनको मिथ्याष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि सान्तर बांधते हैं, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम पाया जाता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन्हें निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, उनके प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है।
___ इन प्रकृतियोंके प्रत्यय देवोघ प्रत्ययोंके समान हैं । विशेषता केवल इतनी है कि सब जगह स्त्रीवेद प्रत्ययको कम करना चाहिये। उक्त सब देव सब प्रकृतियोंको मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, उनके अन्य गतियोंके बन्धका अभाव है। देव स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है। अन्यत्र तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वां ध्रुवबन्धका . अमाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सब गुणस्थानों में सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि,
घेअधुपपन्थी हैं।
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