Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ४६.] णिरयगदीए णिहाणिहादीणं बंधसामिस
[ ९९ तदो एदासिं पुव्वं पच्छा वा बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि, संतासंताणं सण्णिकासविरोहादो । अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं पुव्वं बंधो वोच्छिज्जदि पच्छा उदओ, सासणम्मि णट्ठबंधाणं असंजदसम्मादिट्ठिम्हि उदयवोच्छेदुवलंभादो।
अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सर-अणंताणुबंधिचउक्काणं सोदय-परोदएण वंधो, अद्धवोदयतादो। णवरि अप्पसत्थविहायगदि-दुस्सराणं सासणसम्मादिविम्हि सोदओ चेव अत्थि । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण-चउसंघडण-तिरिक्खगडपाओग्गाणुपुग्वि-उज्जोव-थीणगिद्धितियाणं परोदएणेव बंधो, एत्थ एदेसिमुदयाभावादो। दुभग-अणादेज्ज-णीचागोदाणं सोदएणेव बंधो, णेरइएसु एदेसिं पडिवक्खाणं उदयाभावादो।
थीणगिद्धितिय-अणंताणुवंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो । इत्थिवेद-चउसंठाण-चउसंघडणउज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेजाणं सांतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो। तिरिक्खाउअस्स णिरंतरो बंधो, पडिवक्खपयडिबंधेण विणा बंधविरामुवलंभादो । तिरिक्खगइ. पाओग्गाणुपुव्वि-तिरिक्खगइ-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधो, छसु पुढवीसु सांतरो होदूण सत्तमपुढविम्हि णिरंतरेणेव बंधदसणादो । जदि पडिवक्खपयडिबंधमस्सिदूण थक्कमाणबंधा
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है। इसीलिये इन प्रकृतियोंके पूर्वमें अथवा पश्चात् वन्धोदयव्युच्छेदका विचार नहीं है, क्योंकि, सत् और असत् वस्तुके सन्निकर्षका विरोध है । अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीत्रगोत्रका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय क्योंकि, सासादनगुणस्थानमें बन्धके नष्ट होजानेपर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इनका उदयव्युच्छेद पाया जाता है। .
अप्रशस्तविहायोगति, दुस्वर और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । विशेष इतना है कि अप्रशस्तविहायोगति
और दुस्वरका सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय ही बन्ध होता है। तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत और स्त्यानगृद्धित्रय, इनका परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनके उदयका अभाव है। दुर्भग, अनादेय और नीचगोत्रका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, नारकियोंमें इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके उदयका अभाव है।
स्त्यानगृद्धि आदिक तीन और अनन्तानुवन्धिचतुष्कका निरन्तर बन्ध होता है। स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्त
स्वर और अनादेय, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है। तिर्यगायुका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धके विना इसके बन्धकी विश्रान्ति पायी जाती है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति और नीचगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, छह पृथिवियों में इनका सान्तर बन्ध होकर सातवीं पृथिवीमें निरन्तर रूपसे ही बन्ध देखा जाता है।
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