Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१९८] . छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६४. पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीय-अट्ठकसाय-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-पंचिंदियजादितेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुगलहुग-उवधाद-परघाद-उस्सास-तस-बादर-पज्जत्तपत्तेयसरीर-णिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्ताणं, सासणो णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्ताणं, सेसा देवगइसंजुत्ताणं बंधया । सादावेदणीय-हस्स-रदीओ मिच्छाइट्ठी सासणो च णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं, सेसा देवगइसंजुत्तं बंधति। एवं जसकित्तिं पि बंधंति', विसेसाभावादो। असादावेदणीय-अजसकित्तीओ मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्त, सासणो तिगइसंजुत्तं, सेसा देवगइसंजुत्तं । पुरिसवेदं मिच्छाइट्ठी सासणो च णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं, सेसा देवगइसंजुत्तं बंधंति । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुभग सुस्सर-आदेज्जाणमेवं चेव वत्तव्यं । देवगदि देवगदिपाओग्गाणुपुबीओ सब्वे देवगइसंजुत्तं बंधंति । [वेउबियसरीर-] वेउब्वियसरीरअंगोवंगाणि मिच्छाइट्ठी देव-णिरयगइसंजुत्तं, सेसा देवगइसंजुत्तं । थिर-सुभाणं सादभंगो । अथिर-असुहाणं असादभंगो । उच्चागोद मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठिणो देव मणुसगइसंजुत्तं, सेसा देवगइसंजुत्तं बंधंति ।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, आठ कवाय, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात. उच्छवास, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तराय, इन प्रकृतियोंके मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त; सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, और शेष जीव देवगतिसे संयुक्त बन्धक हैं । सातावेदनीय, हास्य और रतिको मिथ्या दृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, तथा शेष जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं । इसी प्रकार यशकीर्तिको भी वांधते हैं, क्योंकि, इसके कोई विशेषता नहीं है। असातावेदनीय और अयशकीर्तिको मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादन तीन गतियोंसे संयुक्त, और शेष जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। पुरुषवेदको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त और शेष जीव देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेय प्रकृतियोंका गतिसंयोग भी इसी प्रकार कहना चाहिये । देवगति और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको सब देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगको मिथ्यााष्टि देव व नरकगतिसे संयुक्त तथा शेष देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं । स्थिर और शुभ प्रकृतियोंका गतिसंयोग सातावेदनीयके समान है । अस्थिर और अशुभ प्रकृतियोंका गतिसंयोग असातावेदनीयके समान है । उच्चगोत्रको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दष्टि देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त, तथा शेष तिर्यंच देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं।
१ प्रतिषु — जसकित्तिं हि बंधं पि' इति पाठः ।
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