Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ८२.) देवगदीए मिच्छतादीणं बंधसामित्तं
[१४३ गिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्काणं' मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो । सासणे दुविहो, अणादिधुवत्ताभावादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो।
मिच्छत्त-णQसयवेद-एइंदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण-आदाव-थावरणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ८१ ॥
सुगमं । मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ८२ ॥
एदस्स अत्यो वुच्चद -- मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिजंति, मिच्छाइद्विम्हि चेव तदुभयमुवलंभिय उवरि तदणुवलंभादो । णबुंसयवेद-एइंदियजादि-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडण आदाव-थावराणमेत्युदयाभावादो बंधोदयाणं पुवापुचवोच्छेदपरिक्खा ण कीरदे । मिच्छत्तं सोदएण, अण्णाओ पयडीओ परोदएणेव बझंति, तहोवलंभादों । मिच्छत्तं णिरंतरं बज्झइ, धुवबंधित्तादो । अवराओ सांतरं वझंति, एगसमएण बंधुवरमुवलंभादो । एदासिं पच्चया
और वन्धविनष्ट स्थान सुगम है । स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका वन्ध सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी प्रकृतियां है ।
मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तमृपाटिकासंहनन, आताप और स्थावर नामकर्मोका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ८१ ॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष देव अवन्धक है ॥ ८२ ॥
इसका अर्थ कहते हैं- मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों पाये जाते हैं, ऊपर वे नहीं पाये जाते । नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, आताप और स्थावर, इनके उदयका यहां अभाव होनेसे बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेदकी परीक्षा नहीं की जाती। मिथ्यात्व प्रकृति स्वोदयसे और अन्य प्रकृतियां परोदयसे ही बंधती हैं, क्योंकि, वैसा पाया जाता है। मिथ्यात्व प्रकृति निरन्तर बंधती है, क्योंकि, ध्रुववन्धी है । अन्य प्रकृतियां सान्तर बंधती है, क्योंकि, एक समयमें
१ अ-काप्रयोः 'अणंताणुबंधी ति चउक्काण' इति पाठः ! .. २. प्रतिषु 'तकोवलमादो इंति पाठः !
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