Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१३४ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ७६. मणुस्सा सामी।
सादावेदणीयपरिक्खा वि मूलोघतुल्ला । णवरि पच्चयभेदो सामिभेदो च णायव्वो। मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सादावेदणीयं णिरयगईए विणा तिगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तं बंधंति । एवं सव्वपदेसु पच्चयसंजुत्तसामित्तभेदो चेव । सो वि सुगमो । अण्णत्थ मूलोघं पेच्छिदूण ण कोच्छि भेदो अत्थि त्ति ण परूविज्जदे । णवरि पंचिंदिय-तस-बादराणं बंधो मिच्छाइट्ठिम्हि सोदओ सांतर-णिरंतरो । मणुसपज्जत्तएसु अपज्जत्तबंधो परोदओ । एवं मणुसिणीसु वि वत्तव्यं । णवरि उवघाद-परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणमसंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदओ बंधो । पुरिस-णवंसयवेदाणं सव्वत्थ परोदओ । इत्थिवेदस्स सोदओ । खवगसेडीए तित्थयरस्स णस्थि बंधो, इत्थिवेदेण सह खवगसेडिमारोहणे संभवाभावादो ।
मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो ॥ ७६ ॥
एदं बज्झमाणपयडिसंखाए समाणत्तं पेक्खिय पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो' त्ति • वुत्तं । पज्जवट्ठियणए अवलंबिजमाणे भेदो उवलब्भदे । तं जहा-पंचणाणावरणीय-णवदंसणा
गतिसे संयुक्त बांधते हैं । मनुष्य स्वामी हैं।
__ साप्तावेदनीयकी परीक्षा भी मूलोघके समान है। विशेष यह है कि प्रत्ययभेद व स्वामिभेद जानना चाहिये । मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यगग्दृष्टि सातावेदनीयको नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त, तथा उपरिम जीव देवगतिले संयुक्त बांधते हैं। इस प्रकार सब पदों में प्रत्ययसंयुक्त स्वामित्वभेद ही है। वह भी सुगम है । अन्यत्र मूलोघकी अपेक्षा और कुछ भेद नहीं है, इसीलिये उसकी यहां प्ररूपणा नहीं की जाती । विशेषता यह है कि पंचेन्द्रिय, त्रस और बादरका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय और सान्तर निरन्तर होता है। मनुष्य पर्याप्तकोंमें अपर्याप्तका बन्ध परोदयसे होता है । इसी प्रकार मनुष्यनियों में भी कहना चाहिये । विशेषता केवल यह है कि उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीर, इनका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय बन्ध होता है। पुरुषवेद और नपुंसकवेदका सर्वत्र परोदय बन्ध होता है । स्त्रीवेदका स्वोदय बन्ध होता है। क्षपकश्रेणी में तीर्थकरका बन्ध नहीं होता, क्योंकि, स्त्रीवेदके साथ क्षपकश्रेणी चढ़नेकी सम्भावना नहीं है।
मनुष्य अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है ॥ ७६ ॥
यह बध्यमान प्रकृतियोंकी [१०९] संख्यासे समानताकी अपेक्षा करके 'पंचेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है' ऐसा कहा गया है। पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करनेपर भेद पाया जाता है । वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता
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१ प्रतिषु 'पेक्खिय ओघमंगो' इति पाठः ।
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