Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१२६] छक्खंडागमें बंधसामित्तविचओ
[ ३, ७१. बंधंति । तिरिक्खा सामी। बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो । सेसगुणेसु तिविहो, धुवाभावादो ।
देवाउअस्स को बंधो को अबंधो ? ॥ ७१ ॥ सुगमं ।
मिच्छाइट्टी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ७२ ॥
एदस्सत्थो वुच्चदे-बंधोदयाणमेत्थ पुव्वं पच्छा वोच्छेदविचारो णस्थि, तिरिक्खगईए देवाउअस्स उदयाभावादो। परोदएण बंधो, बंधोदयाणमक्कमेण उत्तिविरोहादो । णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तएसु मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइटि-संजदासंजदाणं जहाकमेण एक्कावण्ण-छादालवादाल-सत्तत्तीसपच्चया होति । जोणिणीसु एगूणवंचास-चउवेदालीस-चालीस-पंचतीसपच्चया । सेसं सुगमं । सब्वे देवगइसंजुत्तं बंधति । तिरिक्खा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । देवाउअस्स बंधो सव्वत्थ सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो ।
बांधते हैं । तिर्यंच जीव इनके स्वामी हैं । बन्धाध्वान और वन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध है, क्योंकि, उनमें ध्रुव बन्धका अभाव है।
देवायुका कौन बन्धक और कौन अवन्धक है ? ॥ ७१ ॥ यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष तिर्यंच अबन्धक हैं ॥ ७२ ॥
इसका अर्थ कहते हैं- यहां बन्ध और उदयका पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेका विचार नहीं है, क्योंकि, तिर्यग्गतिमें देवायुके उदयका अभाव है। देवायुका परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, उसके बन्ध और उदय दोनोंके एक साथ अस्तित्वका विरोध है । बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे बन्धविश्रामका अभाव है। तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंके यथाक्रमसे इक्यावल, छयालीस, ब्यालीस और सैंतीस प्रत्यय होते हैं । योनिमतियोंमें उनचास, चवालीस, चालीस और पैंतीस प्रत्यय होते हैं। शेष प्रत्ययप्ररूपणा सुगम है। सब तिर्यंच देवायको देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। तिर्यच स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम है । देवायुका बन्ध सर्वत्र सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी प्रकृति है।
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