Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ७०.] तिरिक्खगदीए अपच्चक्खाणकोहादीणं बंधसामित्त १२५ च सुगमं । मिच्छत्तस्स सादिओ अणादिओ धुवो अद्धयो त्ति चउव्विहो बंधो । सेसाणं सादिअद्भुवो, अद्धवबंधित्तादो ।
अपच्चक्खाणकोध-माण-माया-लोभाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ६९ ॥
सुगमं।
मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अवंधा ॥ ७० ॥
एदेण संगहिदत्थाणं पयासो कीरद-एदासिं बंधोदया समं वोच्छिण्णा, दोण्हमसंजदसम्मादिट्ठिम्हि विणासुवलंभादो । सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवोदयत्ता । णिरंतरो, धुवबंधित्तादो। पच्चया तिरिक्खाणं पंचट्ठाणियपयडिपच्चएहि तुल्ला । मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणसम्मादिट्ठी तिगइसंजुत्तं, सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी देवगइसंजुत्तं
स्वामी है । बन्धाध्वान और बन्धविनष्ट स्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका सादिक, अनादिक, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकारका बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभका कौन बन्धक और कौन अबन्धक
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक
इस सूत्रके द्वारा संगृहीत अर्थोंका प्रकाश करते हैं- इन चारों प्रकृतियोंका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें दोनोंका विनाश पाया जाता है । इनका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, वे अधुवोदयी हैं । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी हैं। इनके प्रत्यय तिर्यंचोंके पंचस्थानिक प्रकृतियोंके समान हैं । मिथ्यादृष्टि तिर्यंच इन्हें चारों गतियोंसे संयुक्त, सासादनसम्यग्दृष्टि तीन गतियोंसे संयुक्त, तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि देवगतिसे संयुक्त
१ प्रतिषु 'पंचट्ठाणाणिय- इति पाठः ।
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