Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
तिरिक्खा सामी । बंधद्वाणं बंधविणडाणं च सुगमं । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीयमिच्छत्त-सोलसकसाय-भय- दुगुंछा - तेजा - कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क- अगुरुवलहुव-उवघादणिमिण-पंचतराइयाणं चउव्विहो बंधो, धुवबंधित्तादो |
मणुसगदीए मणुस - मणुसपज्जत्त मणुसिणीस ओधं यव्वं जाव तित्थयरेति । णवरि विसेसो, बेट्टाणे अपच्चक्खाणावरणीयं जधा पंचिंदियतिरिक्खभंगो ॥ ७५ ॥
एदस्सत्थो वुच्चदे - ओघम्मि जासिं पयडीण जे बंधया परूविदा ते चेव तासिं पडणं बंधया एत्थ वि होंति त्ति ओघमिदि उत्तं । सव्वट्टाणेसु ओघत्ते संपत्ते तणिसेह बेट्ठाणियपयडीणं अपच्चक्खाणावरणीयस्स च पंचिंदियतिरिक्खभंगो त्ति परुविदं । एदेण देसामासिएण सूइदत्थपरूवणं कस्सामा । तं जहा- पंचणाणावरणीय चउदंसणावरणीयजसकित्ति - उच्चागोद-पंचंतराइयाणं गुणगयबंधसामित्तण, बंधोदयाणं पुव्वं पच्छा वोच्छेदविचारेण, सोदय-परोदय-सांतर - णिरंतरबंध विचारणाए, बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सादि-आदि
[ ३, ७५.
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बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका चारों प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी हैं ।
मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त एवं मनुष्यनियों में तीर्थंकर प्रकृति तक ओघके समान जानना चाहिये । विशेषता इतनी है कि द्विस्थानिक प्रकृतियों और अप्रत्याख्यानावरणीयकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है ॥ ७५ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं- ओघमें जिन प्रकृतियोंके जो बन्धक कहे गये हैं वे ही उन प्रकृतियों के बन्धक यहां भी हैं, इसीलिये सूत्र में 'ओघके समान' ऐसा कहा है । सब स्थानों में ओघत्वके प्राप्त होनेपर उसके निषेधार्थ 'द्विस्थानिक प्रकृतियों और अप्रत्याख्यानावरणीयकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यचों के समान है' ऐसा कहा है । इस देशामर्शक सूत्रसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका गुणस्थानगत बन्धस्वामित्व, बन्ध और उदयका पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेका विचार, स्वोदयपरोदय बन्धका विचार, सान्तर - निरन्तर बन्धका विचार, वन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान
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१ अ - आप्रत्योः ' बंधद्वाणं बंधविणट्टाणं सादि- '; कापतौ ' बंधद्वाणं बंधविणडाणं च सुगमं सादि ' इति पाठः । मप्रतौ स्वीकृतपाठः ।
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