Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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तिरिक्खगदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्त
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उच्चागोदाणं मिच्छाइट्ठि - सासणेसु सांतर- णिरंत बंधो, सुहतिलेस्सिय संखेज्जासंखेज्जवासाउएसु निरंतर बंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो बंधो ।
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६४. 1
तिरिक्खेसु मिच्छाइडीणं मूलपच्चया चत्तारि । उत्तरपच्चया तेवंचास, वेव्वियवेउब्वियमिस्सपच्चयाणमभावादो | णवरि देवगइचउक्कस्स एक्कवंचास पच्चया, वेउब्वियवेउब्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावाद । ऐगसमय जहण्णुक्कस्सपच्चया दस अट्ठारस 1 सासणस्स मूलपच्चया तिण्णि, उत्तरपच्चया अत्तालीस । वेउव्वियचउक्कस्स छाएत्तालीस, पुञ्चिल्लाणं चेवाभावादो । एगसमयजहण्णुक्कस्सपच्चया दस सत्तारस । सम्मामिच्छाइडि- असंजदसम्मादिडीणं मूलोघपच्चया चेव । णवरि सम्मामिच्छा
हि वेउव्वयकायजोगो असंजदसम्मादिट्ठिम्हि वेउब्विय-वेउब्वियमिस्साजोगा अवणेदव्वा । संजदासंजदे ओघपच्चया चेव । एवं चउव्विहाणं पच्चयपरूवणा कदा | णवरि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु पुरिस - णवुंसयपच्चया अवणेदव्वा । असंजदसम्माइट्ठिम्हि ओरालियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेदव्वा ।
शरीर, वैक्रियिकशरीरांगोपांग और उच्चगोत्रका मिध्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टियों में सान्तर- निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, शुभ तीन लेश्यावाले संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यात वर्षायुष्कों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है ।
तिर्यचों में मिथ्यादृष्टियोंके मूल प्रत्यय चार होते हैं । उत्तर प्रत्यय तिरेपन होते हैं, क्योंकि, यहां वैकियिक और वैकिथिकमिश्र प्रत्ययोंका अभाव है । विशेष इतना है कि 'देवगतिचतुष्कके इक्यावन प्रत्यय होते है, क्योंकि, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है । एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय क्रमसे दश और अठारह होते हैं। सासादन सम्यग्दृष्टिके मूल प्रत्यय तीन और उत्तर प्रत्यय अड़तालीस होते हैं । वैक्रियिकचतुष्कके उत्तर प्रत्यय छ्यालीस होते हैं, क्योंकि, पूर्वोक्त प्रत्ययों का ही अभाव रहता है। एक समय सम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट प्रत्यय क्रमसे दश और सत्तरह होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिके मूलोघ प्रत्यय ही होते हैं । विशेषता यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में वैक्रियिककाययोग और असंयतसम्यग्दृष्टिमें वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र योगोंको कम करना चाहिये । संयतासंयत गुणस्थान में ओघ प्रत्यय ही होते हैं । इस प्रकार चार प्रकारके तिर्यचों के प्रत्ययोंकी प्ररूपणा की है । विशेषता यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियों में पुरुषवेद और नपुंसक वेद प्रत्यय कम करना चाहिये । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययको कम करना चाहिये ।
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१ अप्रतावतः प्राक् ' णवरि देवगरच उक्कस्स ' इत्यधिकः पाठः
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