Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१०.१ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ५३. स्सेत्थुदयाभावादो । तेणेव परोदओ बंधो। णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। पच्चया दंसणविसुज्झदा लद्धिसंवेगसंपण्णदा अरहंत-बहुसुद-पवयणभत्तिआदओ । मणुसगदिसंजुत्तं । णेरइया सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । बंधो सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो।
एवं तिसु उवरिमासु पुढवीसु णेयव्वं ॥ ५३॥
एदं बंधसामित्तं सामण्णं] पडुच्च उत्तं। विसेसे पुण अवलंबिज्जमाणे भेदो अत्थि । तं भणिस्सामो- मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं सांतर-णिरंतरो मिच्छाइट्ठिम्हि पढमाए पुढवीए बंधो णत्थि, सांतरो चेव; तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमभावादो । बिदियदंडयम्हि [तिरिक्खगइ-] तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-णीचागोदाणं सांतर-णिरंतरो बंधो णत्थि, सांतरो चेव, सत्तमपुढवि मुच्चा अण्णत्थ णिरयगदीए एदासिं णिरंतरबंधाभावादो । एसो भेदो पढम-बिदिय-तदियपुढवीसु । बिदिय-तदियपुढवीसु उवघाद-परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणमसंजदसम्मादिट्ठिम्हि सोदओ चेव बंधो, तत्थ अपज्जत्तकाले असंजदसम्माइट्ठीणं अभावादो। मणुसगइदुगं तित्थयरसंत
तुलना यहां नहीं है, क्योंकि, तीर्थकर प्रकृतिका यहां नारकियों में उदय नहीं होता। इसी कारण इसका परोदयसे बन्ध होता है । वन्ध इसका निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयमें इसके बन्धका विश्राम नहीं होता। इसके प्रत्यय दर्शनविशुद्धता, लब्धि-संवेगसम्पन्नता, अरहन्तभक्ति, बहशतभक्ति और प्रवचनभक्ति आदिक है । मनुष्य
मनुष्यगतिसे संयुक्त इसका बन्ध होता है । नारकी जीव स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । इसका बन्ध सादि व अध्रुव होता है, क्योंकि, यह अध्रुवबन्धी प्रकृति है ।
इस प्रकार यह व्यवस्था उपरिम तीन पृथिवियोंमें जानना चाहिये ॥ ५३ ॥
यह बन्धस्वामित्व [सामान्यको ] अपेक्षासे कहा गया है। किन्तु विशेषताका अवलम्बन करनेपर भेद है । उसे कहते हैं- मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध प्रथम पृथिवीमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर नहीं है, किन्तु सान्तर ही है; क्योंकि यहां तीर्थकर प्रकृतिके सत्ववाले मिथ्यादृष्टि नारकी जीव नहीं होते हैं । द्वितीय दण्डकमें (?) [तिर्यग्गति],तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्र प्रकृतियोंका सान्तर-निरन्तर बन्ध नहीं होता, किन्तु सान्तर ही होता है क्योंकि सप्तम पृथिवीको छोड़कर अन्यत्र नरकगतिमें इन प्रकृतियों के निरन्तर बन्धका अभाव है। यह भेद प्रथम, द्वितीय और तृतीय पृथिवियोंमें है। द्वितीय और तृतीय पृथिवियोंमें उपधात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीर, इन प्रकृतियोंका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अपर्याप्तकालमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अभाव है। मनुष्यगति और
१ प्रतिषु ' -भत्ते आदओ' इति पाठः ।
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