Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ५४.] सत्तमपुढबीए बंधसामित्तपरूवणा
[ १०५ कम्मियमिच्छाइट्ठीणं णिरंतरं, सेसाणं सांतरं। असंजदसम्मादिहिस्स चालीस पच्चया, वेउब्वियमिस्सकम्मइयपच्चयाणमभावादो । एत्तिओ चेव भेदो, णत्थि अण्णत्थ कत्थ वि ।
चउत्थीए पंचमीए छट्टीए पुढवीए एवं चेव णेदव्वं । णवरि विसेसो तित्थयरं णत्थिं ॥ ५४ ॥
__तित्थयरस्स बंधो किमिदि णत्थि त्ति उत्ते तित्थयरं बंधमाणसम्माइट्ठीणं मिच्छत्तं गंतूण तित्थयरसंतकम्मेण सह बिदिय-तदियपुढवीसु व उप्पज्जमाणाणमभावादो। एदेणेव कारणेण मणुसगइदुगं मिच्छादिट्ठी सांतरं बंधइ । णत्थि अण्णो भेदो।
सत्तमाए पुढवीए णेरइया पंचणाणावरणीय-छदसणावरणीयसादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछापंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंडाण-ओरा
मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी तीर्थकर प्रकृतिकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टियोंके निरन्तर बंधती हैं, शेष नारकियोंके सान्तर बंधती हैं । असंयतसम्यग्दृष्टिके चालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका यहां अभाव है। इतना ही भेद है, अन्यत्र कहीं और कोई भेद महीं है।
चतुर्थ, पंचम और छठी पृथिवीमें इसी प्रकार जानना चाहिये । विशेषता केवल यह है कि इन पृथिवियोंमें तीर्थंकर प्रकृति नहीं है ॥ ५४ ॥
शंका-तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध यहां क्यों नहीं होता?
समाधान- इस शंकाके होनेपर उत्तर देते हैं कि जिस प्रकार तीर्थंकर प्रकृतिको बांधनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर तीर्थंकर प्रकृतिकी सत्ताके साथ द्वितीय व तृतीय पृथिवियों में उत्पन्न होते हैं वैसे इन पृथिवियोंमें उत्पन्न नहीं होते। इसी कारणसे ही मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको मिथ्यादृष्टि सान्तर बांधते हैं। और कोई भेद नहीं है।
सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता और असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग,
१ घम्मे तित्थं बंधदि बंसामेघाण पुण्णगो चेव । गो. क. १०६. पंकाइसु तित्थयरहीणो । क. अं. ३, ६. क.बं. १४.
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