Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ८.] ओघेण णिहाणिहादीण बंधसामित्तपरूवणा
[ ३३ . भावादो।
किं सांतरं किं णिरंतरं किं सांतर णिरंतरं बझंति त्ति एदस्सत्थो बुच्चदे -- थीणगिद्धितियमणंताणुबंधिचउक्कं च णिरंतरं बज्झई, धुवबंधित्तादो । इत्थिवेदो मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीहि सांतरं बज्झइ, बंधगद्धाए खीणाए णियमेण पडिवक्खपयडीणं बंधसंभवादो । तिरिक्खाउअं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीहि णिरंतरं वज्झइ, अद्धाक्खएण बंधस्स थक्कणाभावादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीओ सांतर-णिरंतरं बझंति ।
होदु सांतरबंधो, पडिवक्खपयडीणं बंधुवलंभादो; ण णिरंतरबंधो, तस्स कारणाणुवलंभादो त्ति वुत्ते वुच्चदे- ण एस दोसो, तेउक्काइय-वाउक्काइयमिच्छाइट्ठीणं सत्तमपुढविणेरइयमिच्छाइट्ठीणं च भवपडिबद्धसंकिलेसेण णिरंतरबंधोवलंभादो । सासणसम्माइट्ठिणो दोणं पयडीणमेदासिं कधं णिरंतरबंधया ? ण, सत्तमपुढविसासणाणं तिरिक्खगई मोत्तणण्णगईणं बंधाभावादो ?
इसमें कोई विरोध नहीं है।
उक्त प्रकृतियां क्या सान्तर, क्या निरन्तर, या क्या सान्तर-निरन्तर बंधती है?' इसका अर्थ कहते हैं-स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुवन्धिचतुष्क निरन्तर बंधती हैं, क्योंकि, ये ध्रुवबन्धी प्रकृतियां है । स्त्रीवेदको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि सान्तर बांधते हैं, क्योंकि, बन्धककालके क्षीण होनेपर नियमसे प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है । तिर्यगायुको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि निरन्तर बांधते हैं, क्योंकि, कालके क्षयसे बन्धके रुकनेका अभाव है । तिर्यग्गति और तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीको सान्तरनिरन्तर बांधते हैं।
शंका--प्रतिपक्षभूत प्रकृतियों के बन्धकी उपलब्धि होनेसे सान्तर बन्ध भले ही हो, किन्तु निरन्तर बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि उसके कारणों का अभाव है ?
समाधान---इस शंकाका उत्तर कहते हैं कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, तेजकायिक और वायुकायिक मिथ्यादृष्टियों तथा सप्तम पृथिवीके नारकी मिथ्यादृष्टियोंके भवसे सम्बद्ध संक्लेशके कारण उक्त दोनों प्रकृतियोंका निरन्तर वन्ध पाया जाता है।
शंका-सासादनसम्यग्दृष्टि इन दोनों प्रकृतियों के निरन्तर बन्धक कैसे हैं ?
समाधान—यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि, सत्तम पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टियोंके तिर्यग्गतिको छोड़कर अन्य गतियोंका बन्ध ही नहीं होता।
१ अ-आपत्योः 'तिरिय-' इति पाठः ।
२ अ-आप्रत्योः ‘बंधय-' कापतौ । बंधिय-' इति पाठः । छ.बं. ५. Jain Education International
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