Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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८६) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ४१. बंधो। एत्थ वि पुव्वं व सेसकारणाणमंतब्भावो दरिसेदव्यो। तदो एवं तित्थयरणामकम्मबंधस्स पंचमं कारणं ।
लद्धिसंवेगसंपण्णदाए- सम्मइंसण-णाण-चरणेसु जीवस्स समागमो लद्धी णाम । हरिसो संतो संवेगो णाम । लद्धीए संवेगो लद्धिसंवेगो, तस्स संपण्णदा संपत्ती । तीए तित्थयरणामकम्मस्स एक्काए वि बंधो। कधं लद्धिसंवेगसंपयाए सेसकारणाणं संभवो ? ण सेसकारणेहि विणा लद्धिसंवेगस्स संपया जुज्जदे, विरोहादो । लद्धिसंवेगो णाम तिरयणदोहलओ, ण सो दंसणविसुज्झदादीहिं विणा संपुण्णो होदि, विप्पडिसेहादो हिरण्ण-सुवण्णादीहि विणा अड्डो' व्व । तदो अप्पणो अंतोखित्तसेसकारणा लद्धिसंवेगसंपया छटुं कारणं ।
जहाथामे तहा तवे- बलो वीरियं थामो इदि एयहो । तवो दुविहो बाहिरो अभंतरो चेदि । बाहिरो अणसणादिओ, अभंतरो विणयादिओ। एसो सव्वा वि तवो वारसविहो । जहाथामे तहा तवे सते तित्थयरणामकम्मं बज्झइ । कुदो ? जहाथामतवे सयलसेसतित्थयर
तीर्थकर नामकर्मका बन्ध होता है। इसमें भी पूर्वके समान शेष कारणोंका अन्तर्भाव दिखलाना चाहिये । इसीलिये यह तीर्थकर नामकर्मके बन्धका पांचवां कारण है।
लब्धिसंवेगसम्पन्नतासे तीर्थकर कर्मका बन्ध होता है-- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें जो जीवका समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं, और हर्ष व सात्त्विक भावका नाम संवेग है । लब्धिसे या लब्धिमै संवेगका नाम लब्धिसंवेग और उसकी सम्पन्नताका अर्थ संप्राप्ति है। इस एक ही लब्धिसंवेगसम्पन्नतासे तीर्थकर नामकर्मका बन्ध होता है।
शंका-लब्धिसंवेगसम्पदामें शेष कारणोंकी सम्भावना कैसे है ?
समाधान-क्योंकि, शेष कारणों के विना विरूद्ध होनेसे लब्धिसंवेगकी सम्पदाका संयोग ही नहीं होसकता। इसका कारण यह कि रत्नत्रयजनित हर्षका नाम लब्धिसंवेग है।
और वह दर्शनविशुद्धतादिकोंके विना सम्पूर्ण होता नहीं है, क्योंकि, इसमें हिरण्य-सुवर्णादिकोंके विना धनाढ्य होनेके समान विरोध है । अत एव शेष कारणोंको अपने अन्तर्गत करनेवाली लब्धिसंवेगसम्पदा तीर्थकर कर्मबन्धका छठा कारण है।
शक्त्यनुसार तपसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है-- बल, वीर्य और थाम (स्थामन्) ये समानार्थक शब्द हैं । तप दो प्रकार है-- बाह्य और आभ्यन्तर । इनमें अनशनादिकका नाम बाह्य तप और विनयादिकका नाम आभ्यन्तर तप है। छह बाह्य एवं छह आभ्यन्तर इस प्रकार मिलकर यह सब तप बारह प्रकार है। जैसा बल हो वैसा तप करनेपर तीर्थकर नामकर्म बंधता है। इसका कारण यह है कि यथाशक्तितपमें तीर्थकर नामकर्मके बन्धके
१ प्रतिषु · अद्दो' इति पाठः ।
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