Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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तित्थयरबंधकारणपरूवणा महव्वयाण विणासण-मलारोहणकारणाणि जहा ण होसंति तहा करेमि त्ति मणेणालोचिय चउरासीदिलक्खवदसुद्धिपडिग्गहो पच्चक्खाणं णाम । सरीराहारेसु हु मण-वयण-पवुत्तीओ ओसारिय ज्झयम्मि एअग्गेण चित्तणिरोहो विओसग्गो णाम । एदेसिं छण्णमावासयाणं अपरिहीणदा अखंडदा आवासयापरिहीणदा । तीए आवासयापरिहीणदाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मस्स बंधो होदि । ण च एत्थ सेसकारणाणमभावो, ण च दंसणविसुद्धिविणयसंपत्ति-वदसीलणिरदिचार-खणलवपडिवोह लद्धिसंवेगसंपत्ति-जहाथामतव-साहुसमाहिसंधारण-वेज्जावच्चजोग-पासुअपरिच्चागारहंत-बहुसुद-पवयणभत्ति-पवयणवच्छल्ल-प्पहावणाभिक्खणणाणोवजोगजुत्तदाहि विणा छावासएसु णिरदिचारदा णाम संभवदि । तम्हा एवं तित्थयरणामकम्मबंधस्स चउत्थकारणं ।)
खण-लवपडिबुज्झणदाए- खण-लवा णाम कालविसेसा । सम्मइंसण-णाण-वद-सीलगुणाणमुज्जालणं कलंकपक्खालणं संधुक्खणं वा पडिबुज्झणं णाम, तस्स भावो पडिबुज्झणदा। खण लवं पडि पडिबुज्झणदा खण-लवपडिबुज्झणदा। तीए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मस्स
मलोत्पादनके कारण जिस प्रकार न होंगे वैसा करता हूं, ऐसी मनसे आलोचना करके चौरासी लाख व्रतोंकी शुद्धिके प्रतिग्रहका नाम प्रत्याख्यान है। शरीर व आहारमें मन एवं वचनकी प्रवृत्तियोंको हटाकर ध्येय वस्तुकी ओर एकाग्रतासे चित्तका निरोध करनेको व्युत्सर्ग कहते हैं । इन छह आवश्यकोंकी अपरिहीनता अर्थात् अखण्डताका नाम आवश्यकापरिहीनता है । उस एक ही आवश्यकापरिहीनतासे तीर्थकर नामकर्मका वन्ध होता है। इसमें शेष कारणों का अभाव भी नहीं है, क्योंकि दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पत्ति, व्रत-शीलनिरतिचारता, क्षण-लवप्रतिबोध, लब्धि-संवेगसम्पत्ति, यथाशक्ति तप, साधुसमाधिसंधारण, वैयावत्ययोग, प्रासुकपरित्याग, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति,प्रवचनभक्ति,प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावना और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगयुक्तता, इनके विना छह आवश्यकोंमें निरतिचारता सम्भव ही नहीं है । इस कारण यह तीर्थकर नामकर्मके बन्धका चतुर्थ कारण है।
क्षण लवप्रतिबुद्धतासे तीर्थंकर नामकर्म बंधता है--क्षण और लव ये कालविशेषके नाम हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत और शील गुणोंको उज्ज्वल करने, मलको धोने अथवा जलानेका नाम प्रतिबोधन और इसके भावका नाम प्रतिबोधनता है । प्रत्येक क्षण व लवमें होनेवाले प्रतिवोधको क्षण-लवप्रतिवुद्धता कहा जाता है । उस एक ही क्षण-लवप्रतिबुद्धतासे
१ णामादीणं छण्हं अजोगपरिवज्जणं तियरणेण । पच्चक्खाणं णेयं अणागयं चागमे काले । मूला. २७. अनागतदोषापोहनं प्रत्याख्यानम् । त. रा. ६, २४, ११.
२ प्रतिषु 'सरीराहारासु' इति पाठः ।
३ देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि । जिणगुणचिंतण जुत्तो काउस्सग्गो तणुविसग्गो । मूला. २८. परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिवृत्तिः कायोत्सर्गः । त. रा. ६,२४,११.
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