Book Title: Shatkhandagama Pustak 08
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३, ४१. ] तित्थयरबंधकारणपरूवणा
[८९ दसमं कारणं ।
___ अरहंतभत्तीए - खविदधादिकम्मा केवलणाणण हिदसव्वट्ठा अरहंता णाम । अधवा, गिट्ठविदट्ठकम्माणं घाइदघादिकम्माणं च अरहंतेत्ति सण्णा, अरिहणणं पडि दोण्हं भेदाभावादो । तेसु भत्ती अरहंतभत्ती । ताए तित्थयरकम्मं बज्झइ । कथमेत्थ सेसकारणाणं संभवो? वुच्चदे --- अरहंतवुत्ताणुट्ठाणाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा अरहंतभत्ती णाम । ण च एसा दसणविसुज्झदादीहि विणा संभवइ, विरोहादो । तदो एसा एक्कारसमं कारणं ।।
बहुसुदभत्तीए- बारसंगपारया बहुसुदा णाम, तेसु भत्ती - तेहि वक्खाणिद.' आगमत्थाणुवत्तणं तदणुट्ठाणपासो वा- बहुसुदभत्ती । ताए वि तित्थयरणामकम्मं बज्मइ, दंसणविसुज्झदादीहि विणा एदिस्से असंभवादो । एदं बारसमं कारणं ।
चाहिये । इस प्रकार यह दशवां कारण है।
__ अरहन्तभक्तिसे तीर्थंकर नामकर्म बंधता है-जिन्होंने घातियाकर्मोको नष्ट कर केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंको देख लिया है वे अरहन्त हैं। अथवा, आठों कोको दूर करदेनेवाले और घातिया कर्मोंको नष्ट करदेनेवालोंका नाम अरहन्त है, क्योंकि कर्म-शत्रुके विनाशके प्रति दोनोंमें कोई भेद नहीं है । (अर्थात् 'अरहन्त' शब्दका अर्थ चूंकि 'कर्म-शत्रुको नष्ट करनेवाला' है, अत एव जिस प्रकार चार घातिया कर्मोको नष्ट कर देनेवाले सयोगी और अयोगी जिन ' अरहन्त' शब्दके वाच्य हैं उसी प्रकार आठों कर्मोंको नष्ट कर देनेवाले सिद्ध भी' अरहन्त' शब्दके वाच्य होसकते हैं, क्योंकि, निरुक्त्यर्थकी अपेक्षा दोनोंमें कोई भेद नहीं है।) उन अरहन्तों में जो गुणानुरागरूप भक्ति होती है वही अरहन्तभक्ति कहलाती है । इस अरहन्तभक्तिसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है।
शंका-इसमें शेष कारणोंकी सम्भावना कैसे है ?
समाधान-इस शंकाका उत्तर देते हैं कि अरहन्तके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठानके अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठानके स्पर्शको अरहन्तभक्ति कहते है। और यह दर्शनविशुद्धतादिकोंके विना सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेमें विरोध है। अतएय यह तीर्थकर कर्मवन्धका ग्यारहवां कारण है।
बहुश्रुतभक्तिसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है- जो बारह अंगोंके पारगामी हैं वे बहुश्रुत कहे जाते हैं, उनके द्वारा उपदिष्ट आगमार्थके अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठानके स्पर्श करनेको बहुश्रुतभक्ति कहते हैं। उससे भी तीर्थकर नामकर्म बंधता है, क्योंकि, यह भी दर्शनविशुद्धतादिक शेष कारणोंके विना सम्भव नहीं है। यह तीर्थकर नामकर्मबन्धका बारहवां कारण है। क. बं. १२.
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